“ उपयुक्त भाषा और उपयुक्त लिपि ”
डॉ लक्ष्मण झा “ परिमल ”
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कभी कभी आलोचना ,समालोचना ,टीका और टिप्पणियां लोगों की सकारात्मक आकृतियों में रहने के बाबजूद नकारात्मक लिबासों में लिपट जातीं हैं जिसे ग्राह्य करना साँप -छुछुंदर के जैसा हो जाता है ! लेख ,कहानी ,कवितायें और तरह -तरह के संवाद हिन्दी में लिखे रहते हैं पर उसकी प्रतिक्रिया जब हिन्दी भाषा भिज्ञ से अँग्रेजी में आती है तो हृदय विदीर्ण हो जाता है ! अहिंदी भाषा भाषियों से यह हो सकता है कि वे अपनी प्रतिक्रिया किसी भाषा में लिख सकते हैं ! कुछ लोग तो किसी ना किसी के विदेशी फेसबुक मित्र होते हैं ! उनकी भंगिमा को हम गूगल के अनुवाद विधा से समझ सकते हैं ! परंतु हिन्दी के जानने वाले यदि हिन्दी लेखों की प्रतिक्रिया अँग्रेजी में और अँग्रेजी लेखों की प्रतिक्रिया हिन्दी में देते हैं तो अग्राह्य लगने लगता है ! नये और पुराने कह के बचना शोभा नहीं देता ! जब इस रंगमंच के कलाकार बन गए हैं तो अपरिपक्व कलाकारों की सूची में अपना नाम ना दर्ज करबाएं !
यह तो बात हुयी हिन्दी में अँग्रेजी और अँग्रेजी में हिन्दी वाली बात जिसे हम अनमना समझते हुये स्वीकार करने की नाटकीय प्रक्रिया करते हैं ! परंतु जब मैथिली को रोमन और हिन्दी को भी रोमन में लिखते हैं तो कथमपि स्वीकार नहीं होता है ! पहली बात इसे पढ़ने में असुविधा होती है और अर्थ का अनर्थ हो जाता ! आप बोलेंगे कुछ ,लोग समझेंगे कुछ और ! हमारे आभार को कभी तलवार की वार ना समझ जाएँ ?
हरेक भाषा और सारी लिपिओं का सम्मान हमें करना चाहिए और इनका प्रयोग उपयुक्त स्थान पर ही होना उचित होगा !
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डॉ लक्ष्मण झा “ परिमल ”
दुमका