उदार हृदया अंकिता जी एवं आलोक का प्रायश्चित
उदार हदया अंकिता एवं आलोक का प्रायश्चित
जीवन के 35 बंसत देख चुके आलोक बाबू अपने जीवन से संतुष्ट न थे। उन्हे हमेषा षिकायत थी कि कामिनी ओर कंचन ने उनका साथ कभी नही दिया। वैसे कामिनी एवं कंचन तृष्णा के प्रतीक है, एवं पूरक भी। परन्तु तृष्णा के अधीन होकर आलोक बाबू का जीवन बिखर सा गया था। आलोक बाबू विकास भवन में जिला पंचायत राज अघिकारी के पद पर नियुक्त थे।
उनका सम्पन्न परिवार था। सुन्दर सी भार्या अंकिता जी थी। एवं उनके दो बच्चे थे। जो क्रमषः कक्षा 8 व कक्षा 6 में अध्ययन-रत थे। छोटाा से परिवार सुखी परिवार बन सकता था । परन्तु आलोक बाबू अजीब सी तृष्णा के षिकार थे। सुन्दरता उनकी कमजोरी थी तो पैसो की भूख उन्हे हमेषा बनी रहती थी। उनकी इस कमजोरी का फायदा उनके चाटुकार कर्मचारी हमेषा उठाया करते थे।
जीवन में उच्च आदर्ष एवं सादगी जीवन को मूल्यवान बनाती है । उच्च आदर्ष जीवन को अक्षुण रखते है एवं सादगी किसी की प्रंषसा की मोहताज नही होती है। ये खुद ब खुद होंठाो पर आ जाती है। सन्तोष और तृष्णा जीवन के दो परस्पर विरोधी पहलू है। सन्तोष जीवन को स्वर्ग बना सकता है। और तृष्णा जीवन को नर्क बना सकती है। अतः उपरोक्त दोनो गुणों एवं अवगुण का सन्तुलन आवष्यक है। तृष्णा इष्या द्वेष एवं प्रतिस्पर्धा की परिचायक है तो सन्तोष गुण अद्वेतवाद का परम उदाहरण है। सन्तोष गुण स्नेह सुख षान्ति आंनद का बोध कराता है।
आलोक बाबू अपनी पत्नी से झूठ बोल कर अपनी महिला मित्रों के घर रात-रात भर रूक जाते थे। रात-रात भर सुरा एवं सुन्दरी का खेल चलता रहता था। जब कामिनी पर किये गये खर्चो की सीमा मर्यादा तोड़ देती है, तो परिवारिक जीवन में जहर घुल जाता है। आर्थिक तंगी बच्चों के पालन पोषण का खर्च उनके षैक एवं षिक्षा पर खर्च कम नही होता है। पत्नी की मानसिक सुखष्षान्ति के लिये पति का सहयोग भी आवष्यक है। पत्नी के षौक पूरा करना आलोक जी के लिये मुषकिल नही था। परन्तु सहयोग एवं प्रेम की वर्षा सरसता भी तो आवष्यक है। आलोक बाबू अपना दायित्व भूल चुके थे । अपने सुख के मार्ग से भटक कर कुसंग के मार्ग पर चल पड़े थे।
अंकिता जी सब जानती थी। एवं आलोक बाबू से इसी बात पर उनका झगड़ा भी होता था। अंकिता जी जब-जब रातो का हिसाब मांगती अनाप सनाप खर्चो पर आपत्ति उठाती, आलोक जी टके सा जवाब देकर खिसकने का प्रयत्न करते थे। उनका कहना था, रहने के लिये रोटी कपड़ा मकान दिया है, बच्चे भी है किसी बात की कमी होने नही देता हू।ॅ तो अनायाष ही मेरे कामो में टांग क्यो अड़ाती हो।
षायद आलोक बाबू को नही मालम था, कि रातो की रंगरेलिया अंकिता जी का असन्तोष बडा रही थी। उनका सुख चैन सभी छिन गया था। पत्नी एवं बच्चो के सम्मुख पति का उज्जवल चेहरा नही बल्कि घिनोना चेहरा ही आता था। आखिर घुटन एवं कुठंा से ग्रस्त होकर अंकिता जी ने आलोक जी को घर से निकाल दिया। अंकिता जी सुषिक्षित आधुनिक युग की महिला थी। पास पडोस में होती सुगबुगाहट एवं तानो से उनका मन छलनी हो जाता था। अपने बच्चो के पालन पोषण हेतु एवं सम्मनित जीवन जीने हेतु उन्होेने किसी प्राइवेट फर्म में नौकरी कर ली थी। उनके मधुर व्यवहार एवं कर्तव्य निष्ठाा के सब कायल थे।
अलोक बाबू कुछ दिनो तक महिला मित्रो के घर पर रहे परन्तु वहां से भी उन्हे कुछ समय बाद तिरस्कार मिला ओर उनका जीवन दूभर हो गया। नौकरी भी खतरे में पडती देख उनका नषा टूटा । अब जीवन में पश्चाताप के अलावा कुछ नही बचा था । आलोक बाबू जीवन के दो राहे पर खडे थे। प्रायष्चित स्वरूप कभी सुरा एवं सुन्दरी को हाथ न लगाने की कसम खा कर वे घर लौटते है। एवं पत्नी से क्षमा मांगते है। यदि पत्नी का उदार हदय जीवन की कटु अनभवों को भुला कर नई जिन्दगी कीष्षुरूआत करने की इजाजत दे देता है। तो वे नई जिन्दगी की षुरूआत कर सकते है। अन्यथा दर-दर की ठोकर खाकर वैराग्य धारण कर किसी धर्म गुरू की षरण में जा सकते है। एवं प्रायष्चित कर सकते है। कामिनी-कंचन का अमर्यादित आचरण उन्हे बहुत महगा पडा था।
कहते है अगर सुबह का भूला, साम को घर आ जाये तो भूला नही कहाता ।
उदार हदया सुसंस्कृत धार्मिक स्वरूपा देवी पत्नी ने अपने पति को क्षमा कर दिया। अपने समस्त क्लेषों, कंुठाओ एवं उपेक्षा को दरकिनार कर पत्नी अंकिता जी ने अपने पति आलोेक को स्वीकार कर लिया था। परन्तु कलंक का काला धब्बा जो उनके पति ने अपने चरित्र एवं दामन पर लगाया था, वह षायद ही धुल सके। क्योंकि कलंक काजल से भी काला होता है।
डा प्रवीण कुमार श्रीवास्तव