उत्तराखण्डी भाषाओं के प्रहरी थे भगवती प्रसाद नौटियाल……
10 मई, 1931 ई. को पौड़ी जिले के गौरीकोट गांव, इडवालस्यूँ, पौड़ी गढ़वाल में जन्मे भगवती प्रसाद नौटियाल अपने समय के प्रसिद्ध समालोचक व साहित्यकार थे। साहित्य में उन्होंने उल्लेखनीय योगदान दिया। वह हिंदी के प्रसिद्ध अध्येता एवं समीक्षक थे। साथ ही उन्होंने गढ़वाली साहित्य पर भी बहुत काम किया। उन्हें विभिन्न संस्थाओं ने समय-समय पर कई पुरस्कारों से सम्मानित किया। जीवनयापन के लिए वह केन्द्रीय पुस्तकालय (लोक सभा) में चीफ लाइब्रेरियन रहे तथा प्रतिनियुक्ति पर नेशनल सिक्योरिटी गार्ड (एन.एस.जी.) से सेवानिवृत्ति प्राप्त की। पिछले दिनों 2018 ई. में मृत्यु के बाद नौटियाल जी का नाम पत्र-पत्रिकाओं में तब चर्चा में आया, जब उके 125 साल पुराने पुस्तैनी मकान सहित, गाँव के अन्य तीन मकान जे.सी.बी. से ढहा दिए थे। मामले में परिजनों ने डी.एम. पौड़ी से मिलकर इस सन्दर्भ में उचित कार्रवाई की मांग की थी। डी.एम. के निर्देश पर 16 जुलाई को एस.डी.एम. सदर योगेश सिंह और कोतवाल पौड़ी लक्ष्मण सिंह कठैत ने राजस्व विभाग के कर्मचारियों के साथ गाँव का निरीक्षण भी किया था। जांच के बाद पौड़ी कोतवाली में अज्ञात लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर लिया गया था। चार वर्ष बीत जाने के उपरांत भी स्थिति जस की तस बनी हुई है!
ख़ैर अपनी शिक्षा के विषय में नौटियाल जी ने स्वयं एक साक्षात्कार में गीतेश नेगी को बताया था, “मेरी कक्षा तीन तक की शिक्षा गाँव हुई, फिर सन 1938 ईस्वी. में, मैं पिताजी के साथ दिल्ली आ गया था। एम०बी० प्राइमरी स्कूल, कश्मीरी गेट से कक्षा चार उत्तीर्ण करने के बाद सन 1939 ईस्वी. में मेरा दाखिला अंग्रेजी माध्यम के एक हैप्पी स्कूल, कश्मीरी गेट में कर दिया गया। फीस थी पाँच रुपये महीना। सन 1941-42 ईस्वी. में साम्प्रदायिक दंगों के कारण पिताजी मुझे गाँव में ही छोड़ गए थे। सन्न 1943 ईस्वी. में पिताजी की स्वास्थय समस्या के कारण, मैं उनके साथ पौड़ी में ही रहा, फिर सन 1944 ईस्वी. में हम फिर दिल्ली लौट आये, जहाँ मुझे कक्षा छह में हैप्पी स्कूल, कश्मीरी गेट में पुनः दाखिला मिल गया। इस तरह मेरी एम०ए० (ऑनर्स) तक की शिक्षा, दिल्ली में ही हुई।”
हिमाद्रि एनक्लेव (जोगीवाला) में अपना घर होने के बावजूद भगवती प्रसाद नौटियाल जी, पिछले पांच सालों (2014–2018) से अखिल गढ़वाल सभा की धर्मशाला में एक कमरा लेकर रह रहे थे। इस अवधि में नौटियाल जी ने गढ़वाल सभा के त्रिभाषीय (गढ़वाली, हिन्दी, अंग्रेजी) शब्दकोष पर काम किया। जहाँ दून लाइब्रेरी ने अपनी सारी रेफ़्रेंसस बुक उनके लिए विशेष रूप से उपलब्ध करवाई थीं। एक अन्य किताब ‘गंगा एक सांस्कृतिक धरोहर’ भी तैयार हो चुकी थी। जिसका लोकार्पण कुछ दिन बाद होना था, लेकिन इससे पहले ही नौटियाल जी चल बसे। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी (1997–2004 ई.) ने भी अपने पुस्तकालय को संवारने का जिम्मा भगवती प्रसाद नौटियाल को दिया था, जब अटल जी प्रधानमन्त्री थे।नौटियाल जी न केवल हिंदी के प्रसिद्ध अध्येता एवं समीक्षक थे बल्कि गढ़वाली साहित्य पर भी उनके द्वारा समय-समय पर सैकड़ों अनुसंधानिका आलेख, निबंध, समीक्षाएँ और भूमिकाएँ लिखी गई हैं। वे अखिल गढ़वाल सभा द्वारा प्रकाशित “त्रिभाषीय गढ़वाली-हिंदी-अंग्रेजी शब्दकोष” के मुख्य संपादक और सम्मानित सदस्य भी रहे। उनकी मुख्य कृतियों में “मध्य हिमालय भाषा संस्कृति साहित्य एवं लोक साहित्य”, “संक्षिप्त लोकोक्ति कोष”, “हिंदी पत्रकारिता की दो शताब्दियाँ और दिवंगत प्रमुख पत्रकार”, “गढ़वाली, कुमाऊंनी हिंदी एवं अंग्रेजी के समानार्थक” आदि हैं। इस निष्पक्ष साहित्य सेवा के लिए उन्हें कई सामाजिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं ने सम्मानित भी किया।
अनेक व्यक्तियों ने अनेक कार्यक्रमों के दौरान जो टिप्पणियाँ कीं उनमे से कुछ यहाँ उल्लेखनीय हैं। मुख्य वक्ता दून वि.वि. के पूर्व कुलपति डॉ. चंद्रशेखर नौटियाल ने एक बार कहा कि, “भगवती प्रसाद नौटियाल की संस्कृति, भाषा के मामलों पर गहरी पकड़ थी, चूँकि वे अध्ययनशील थे। यहां वहां बिखरी जानकारियों को संकलित कर उन्हें अपनी समीक्षाओं, पुस्तकों की भूमिकाओं में शामिल करते थे। हर लेखक पुस्तक प्रकाशित करने से पहले उन्हें अपनी पांडुलिपि पढ़ने को देते थे।” तो हिन्दी के लब्धप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री गंगा प्रसाद विमल जी ने भी एक दफ़ा कहा था—”उनका व्यक्तित्व जादुई था। वो घंटों पुस्तकों में खोए रहते थे। उनकी आलोचनाओं से कई लेखकों को अपने लेखन में सुधार का अवसर मिला।” इनके अलावा कुमाऊं वि.वि. के पूर्व कुलपति डॉ. बी.के. जोशी ने एक कार्यक्रम के दौरान कहा था—”‘हिंदी, अंग्रेजी, गढ़वाली शब्दकोश’ उनकी उत्तराखंड को बड़ी भेंट है। इसमें 40 हजार से अधिक शब्द और उनकी विवेचना की गई है। इस पर जब वह काम कर रहे थे तो अपना घर छोड़कर पहाड़ों में घूमते रहे।”
उत्तराखण्ड के उभरते हुए पत्रकार-लेखक गीतेश नेगी को दिए गए साक्षात्कार में नौटियाल जी ने बताया था—”पिछले 65 सालों में मैंने दो सौ से अधिक लेख और साठ से ऊपर पुस्तकों की समीक्षाएं एवं समीक्षात्मक लेख लिखे हैं, जो समय-समय अनेक पत्र-पत्रिकाओं प्रकाशित हो चुके हैं । उत्तराखण्ड के जिन महान गढ़वाली व कुमांऊनी लेखकों, कहानीकारों, कवियों, नाटककारों व व्यंग्यकारों आदि की रचनाओं की समीक्षाएँ की हैं उनमे प्रमुख हैं— डा ० महावीर प्रसाद गैरोला, पूर्व मुख्यमंत्री उत्तराखण्ड डा० रमेश पोखरियाल ‘निशंक’, श्री दुर्गा प्रसाद घिल्डियाल, हिन्दी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री शैलेश मटियानी, डा० गंगा प्रसाद विमल, श्री कमल साहित्यालंकार, श्री शिवराज सिंह रावत निःसंग, श्री कुलानन्द घनशाला, श्री राधाकृष्ण पंत, श्री ललित केशवान, श्री मदन मोहन डुकलाण, श्री सत्य प्रसाद रतूड़ी (सम्पादक ), श्री गोकुलानंद किमोठी, श्री आचार्य रघुनाथ भट्ट, श्री प्रेमलाल भट्ट, श्री बुद्धि बल्लभ थपलियाल, श्री धर्मानन्द उनियाल, श्री राजेन्द्र सिंह राणा, श्री वीणापाणि जोशी, श्री नरेन्द्र कठैत, श्री सुदामा प्रसाद प्रेमी, श्री अबोध बंधु बहुगुणा, श्री सन्दीप रावत, श्री शेर सिंह गढ़देशी, श्री चिन्मय सायर, श्री देवेन्द्र जोशी, श्री जीत सिंह नेगी और श्री जयांनद खुगशाल बौळ्या आदि।”
शिक्षा पूर्ण करने के उपरान्त सन 1959 ई. में नौटियाल जी का भारत सरकार के मंत्रालय, वैज्ञानिक अनुसंधान एवं सांस्कृतिक कार्य मंत्रालय में उनका पुस्तकालयाध्यक्ष के पद पर चयन हो गया। इस मंत्रालय के मंत्री थे—प्रो० हुमायुं कबीर। एक रोज़ हुमायुं साहब ने नौटियाल जी को अचानक तलब किया। उनका पहला सवाल यही था— “नौटियाल जी, आप पुस्तकालय विज्ञान के अतिरिक्त क्या-क्या जानते हैं?” तो संकुचाते हुए नौटियाल जी ने धीमे से उत्तर दिया— “आदरणीय मन्त्री महोदय, मैं संस्कृति व हिमालय आदि पर, कभी-कभी आलेख-समीक्षा आदि लिख लेता हूँ, यह विषय मेरी रूचि के अंतर्गत आते हैं।”
फ़िलहाल इस मुलाक़ात के उपरांत, बात आई-गई सी हो गई। इस मंत्रालय की एक ‘संस्कृति’ नाम की वार्षिक पत्रिका थी। एक दिन नौटियाल जी अपनी मेज़ पर बैठे चाय पी रहे थे कि ‘संस्कृति’ पत्रिका के सम्पादक द्विवेदी जी ने पूछा— “नौटियाल जी, क्या आप पुस्तकों (हिन्दी पुस्तकों ) की समीक्षा कर सकोगे?” ये सुनकर तो जैसे नौटियाल जी को मुँह मांगी मुराद मिल गई। उन्होंने अविलम्ब “हाँ” कह दिया। अतः फिर क्या था उन्हें “संस्कृति” पत्रिका में पुस्तकों की समीक्षा का काम मिल गया। इससे नौटियाल जी को दो लाभ हुए, एक तो अतिरिक्त मुद्रा का जुगाड़ हो गया और दूसरे बैठे-बिठाये समीक्षाओं के माध्यम से नौटियाल जी का नाम हो गया। उनके द्वारा की गई पुस्तकों की समीक्षाओं से द्विवेदी जी बहुत प्रसन्न हुए, समीक्षा के साथ साथ उन्हें अंग्रेजी से हिन्दी के अनुवाद का काम भी द्विवेदी जी देने लगे।
सन 1963 ईस्वी. में वैज्ञानिक अनुसंधान एवं सांस्कृतिक कार्य मंत्रालय का विलय शिक्षा मंत्रालय में हो गया। जिस कारण हुमायुं कबीर साहब के मंत्रालय में रहते हुए “संस्कृति” पत्रिका के लिए उन्होंने कई लेखकों की पुस्तकों की समीक्षा की, जिनमें नई कविता, नई आलोचना और कला (विमल कुमार), विश्व के दार्शनिक (रत्न चन्द्र शर्मा), चिट्ठी रसेन, मेरी तीस कहानियां, कबूतरखाना (शैलेश मटियानी ), जीवन रश्मियां, सुमित्रा नन्दन पंत, स्मृति चित्र (गुलाब राय), सात साल (मुल्कराज आनन्द), भैरवी, अतिथि (गौरा पंत शिवानी), पतझर, आख़िरी आवाज़ (रांगेय राघव), जीवन और जवानी (दिनेश देवराज), हिमालय में संस्कृति (विश्वम्भर सहाय प्रेमी), वैरियर आल्विन की सफलताएं (आर० के० लेसर), पर्वताकार प्रारब्ध हिमालय (लाइफर वाल्टर, रुपांतरकार-शशिबंधु) आदि रचनाकार प्रमुख रहे।
और अंत में 9 अप्रैल 2018 ई. की शाम को वह मनहूस दिन भी आया, जब हरिद्वार रोड स्थित, कैलाश अस्पताल में भगवती प्रसाद नौटियाल जी का आकस्मिक निधन हो गया था। उस वक़्त वह 87 बरस के थे। मृत्यु से पूर्व के पिछले दस दिनों से वह फेफड़े में संक्रमण की बीमारी के कारण अस्पताल में भर्ती थे। इस दौरान उन्हें दो बार वेंटीलेटर पर भी रखा गया था, अन्ततः उन्हें बचाया न जा सका था। उनके दो पुत्र वीरेंद्र नौटियाल, नरेंद्र नौटियाल, व एक पुत्री कुसुम नौटियाल उनके अन्तिम समय में मौजूद थे। ख़ैर, उनकी मृत्यु पर यही कहा जा सकता है कि उत्तराखण्डी भाषाओं के प्रहरी थे भगवती प्रसाद नौटियाल… उनका नाम और काम हमेशा याद किया जायेगा।