इस घर से ….
इस घर से ….
कितना
इठलाती थी
शोर मचाती थी
मोहल्ले की
नींद उड़ाती थी
आज
उदास है
स्पर्श को
बेताब है
आहटें
शून्य हैं
अपनी शून्यता के साथ
एक विधवा से
अहसासों को समेटे
झूल रही है
दरवाज़े पर
अकेली
सांकल
शायद
इस घर से
घर को
घर बनाने वाला
चला गया है
इक
बुज़ुर्ग
सुशील सरना