इश्क़ और इंकलाब
हम बगावत की मशाल उठाएं
या थामें महबूब का हाथ?
घुलता जा रहा था दिल हमारा
इसी कशमकश में दिन-रात!
तभी कहीं दूर आसमान से
आई एक पुरसोज़ आवाज़!
“इश्क और इंकलाब अलग नहीं
दोनों ही साध ले एक साथ!”
Shekhar Chandra Mitra
हम बगावत की मशाल उठाएं
या थामें महबूब का हाथ?
घुलता जा रहा था दिल हमारा
इसी कशमकश में दिन-रात!
तभी कहीं दूर आसमान से
आई एक पुरसोज़ आवाज़!
“इश्क और इंकलाब अलग नहीं
दोनों ही साध ले एक साथ!”
Shekhar Chandra Mitra