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31 May 2018 · 1 min read

इन्हीं पेंचो-ख़म में उलझता गया मैं

—–ग़ज़ल—-
122-122-122-122
1-
सफ़र में अकेले ही चलता गया मैं
गिरा बारहा और सँभलता गया मैं
2-
बहुत आफ़तें थीं मगर ज़िन्दगी में
दुआ माँ की लेकर के चलता गया मैं
3-
वो पत्थर कहे जिसकी राहों में यारों
सदा फूल बनकर बिख़रता गया मैं
4-
मुझे तो लुभाती रहीं उसकी ज़ुल्फें
इन्हीं पेंचो-ख़म में उलझता गया मैं
5-
बड़ी मुश्किलों से मिला है सनम पर
जुदाई के ग़म से सिहरता गया मैं
6-
हसीं वादियों का वो मंज़र सुहाना
था महताब भी पर पिघलता गया मैं
7-
तराशा ग़मों ने मुझे जितना “प्रीतम”
तभी हीरे जैसा निखरता गया मैं

प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती(उ०प्र०)
17/05/18

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