इजाज़त
इज़ाजत-1987
सबसे पहले कहानी-मुख्य चरित्रों में सुधा,मोहिंदर और माया।
मोहिंदर के दादू ने उसकी शादी पहले से तय कर रखी है,सुधा के साथ। मोहिंदर, अपने दादू के सामने ये सच नहीं स्वीकार कर पाता मगर सुधा से वो ये हक़ीक़त बयान करता है कि उसकी ज़िंदगी से माया नाम की एक लड़की का राब्ता है और ये राब्ता बहुत नज़दीकी है,साथ-साथ रहने तक का।
सुधा,मोहिंदर को माया से शादी कर लेने को कहती है।
मोहिंदर, सुधा से मिलकर वापस आता है तो माया को नहीं पाता।वो उसे बिना बताए कहीं चली जाती है।
जैसा फिल्म में सुधा एक जगह कहती है,कि माया इस दुनिया से बहुत अलग है,सच था।
माया अपनी तरह से जीने वाली,बिना सोचे समझे क़दम उठाने वाली,दुनिया और उसके रवाज़ों से बेपरवाह लड़की है।
वो वापस नहीं आती और मोहिंदर, सुधा की शादी हो जाती है।
सुधा को माया के सामानों और हर कोने में उसकी मौज़ूदगी से भरा ‘अपना घर ‘मिलता है।
वो कहती भी है,,,कि
इस घर में कुछ भी पूरी तरह अपना नहीं लगता,,,
फिर भी बड़ी सहजता और सरलता के साथ सुधा,माया के उस घर में ना होकर भी होने का एहतराम करती है।
मगर वो एक पत्नी भी तो है,
हाँलाकि उसने अपनी नाराज़गी भी जताई तो उसमें कोई कड़वाहट या तंज नहीं था।
लेकिन माया के, लगातार मोहिंदर और उसकी ज़िंदगी में अपने होने की दख़ल से परेशान होकर, एक दिन सुधा उसे छोड़कर चली जाती है,यहाँ मोहिंदर की सरासर गलती थी।
सुधा,अपना रिश्ता अपने सामान के साथ समेटकर, वापस अपनी माँ के पास चली आती है।
मोहिंदर को सदमा लगता है,उसकी देखभाल करने ,माया फिर उसके पास आती है।
सुधा ,मोहिंदर को एक ख़त लिखती है,जिसमें,मोहिंदर से माया के साथ घर बसाने का कहकर, खुद को उसकी ज़िंदगी से गुम कर देती है।
तमाम उलझनों के बाद, अंततः माया एक पागलपन करती है और उसकी मौत हो जाती है।
कहीं भी बँधकर न रहने वाली माया,एक दिन मोहिंदर के साथ बँधना चाहती है,मगर कशमकश में अपनी ज़िंदगी से हीं आज़ाद हो जाती है।
उसे प्यार तो चाहिए था मगर इसके ठहराव को समझ नहीं पाई।
उसमें एक पागलपन था जिसने उसके साथ -साथ दो और इंसानों की ज़िंदगी में सूनापन भर दिया।
हमेशा की तरह, रेखा जी ने सुधा का किरदार अपने अभिनय की नक्काशी से जड़ाऊ बना दिया है।
सुधा जैसी बीवी होना भी सहल बात नहीं।
वेटिंग रूम से शुरू हुई कहानी,सचमुच मोहिंदर की ज़िंदगी को भी वेटिंग रूम में तब्दील कर देती है।
गुलज़ार साहब के निर्देशन में ये फिल्म बेहद दिलचस्प और बेहतरीन बनी है।
जज़्बातों की सीपियों में इसके शब्द-संवाद मोती सरीखे हैं।
ऐसा लगता है मानो लफ्ज़ों की मख़मली चादर पर हम पुरसुकून टहल रहे हैं।
इस फिल्म को देखने के बहुत देर बाद हम इस फिल्म से बाहर आ पाते हैं।
गुलज़ार साहब की क्या तारीफ़!!
इसके लिए उन्हीं से लफ्जों को उधार लेना होगा।
ज़िंदगी बहुत सीधी हो सकती है मगर ज़िंदगी अगर सीधी हीं चाल चले और समय पर सबकुछ आए-जाए तो ये वेटिंग रूम क्यूँ हीं कहलाए??
दिल को छूने वाले गाने,,,
मेरा कुछ सामान,,इसे मैंने अभी मन भरने तक नहीं सुना है।
अगर आप खूबसूरत संवादों की दुनिया में खोना चाहते हैं तो ये फिल्म आपके लिए है,बेशक़।
नसीर जी का किरदार अद्भुत लगा,अनुराधा पटेल ने माया को बखूबी जिया।
आखिर में,नसीर जी की वो अभिव्यक्ति,,,
जब रेखा ,उन्हें पीछे मुड़कर देख रहीं हैं ,,,
बड़े जतन से हम जुगनू को अपनी मुट्ठी में क़ैद कर लेते हैं
मगर एक चूक होती है ,वह जुगनू उड़ जाता है और तब हमारे चेहरे पर वही भाव आते हैं,जो मोहिंदर के थे,,उस आखिरी दृश्य में,,,
इस फिल्म का क्लाइमेक्स कुछ और भी हो सकता था
लेकिन तब ये वेटिंग रूम से नहीं शुरू होती!!!
शुक्रिया!!