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25 Jan 2021 · 15 min read

इक्यावन इन्द्रधनुषी ग़ज़लें

‘इक्यावन इन्द्रधनुषी ग़ज़लें’ (तीसरा ग़ज़ल संग्रह) मेरी किताबों की निःशुल्क पीडीएफ मँगवाने हेतु व्हाट्सएप्प या ईमेल करें।
ईमेल: m.uttranchali@gmail.com / व्हाट्स एप्प न.: 8178871097

(1)

बुना है ख़्वाब स्वेटर-सा, पहन लो इसको तुम दिलबर
जचेगा खूब ये तुम पर, दुआएँ देंगे जी भरकर

बयां कैसे करें शर्मों-हया है उनकी आँखों में
ज़ुबां से कह न पाया जो, कहूँगा बात वो लिखकर

जवानी बीत जाए तो, बुढ़ापा मार डालेगा
चले जायेगें दुनिया से, कहाँ आयेंगे फिर मरकर

तमन्नाओं की, हसरत की, अलग दुनिया बसाई यों
कभी बिजली जो कड़केगी, सिमट जायेंगे हम डरकर

ज़माने की हवाओं में, कभी भी हम न बहकेंगे
कहेंगे बात अपनी हम, हमेशा सबसे कुछ हटकर
•••

(2)

चढ़ा हूँ मैं गुमनाम, उन सीढ़ियों तक
मिरा ज़िक्र होगा, कई पीढ़ियों तक

ये दिलफेंक क़िस्से, मिरी दास्ताँ को
नया रंग देंगे, कई पीढ़ियों तक

कई बार लौटे, उन्हें छू के हम तो
न पहुँचे कई पाँव, जिन सीढ़ियों तक

जमा शा’इरी, उम्रभर की है पूँजी
ये दौलत ही रह जाएगी, पीढ़ियों तक

‘महावीर’ क्यों मौत का, है तुम्हें ग़म
ग़ज़ल बनके जीना है अब, पीढ़ियों तक
•••

(3)

आ रही है शा’इरी, मेरी ज़ुबाँ पे बारहा
देखना ये बात जाएगी कहाँ पे बारहा

थे पुराने जन्म-जन्मों के कोई ये सिलसिले
क़हर ये टूटे हैं वरना, क्यों यहाँ पे बारहा

रू-ब-रू होंगी तिरे जब, बेवफ़ा सच्चाइयाँ
अश्क़ छलकेंगे तिरे ही, आस्ताँ पे बारहा

हो मदारी या तवायफ़, पेट भरने के लिए
हर तमाशा अंत तक, होता यहाँ पे बारहा

इक घड़ी भर ही मिलेगी, मौत रूपी दिलरुबा
ये मिलेगी फिर नहीं, हमको यहाँ पे बारहा
•••

(4)

मुस्कुराने से फ़ायदा क्या है
दर्द पाने से फ़ायदा क्या है

दुःख ही पाए हैं इश्क़ में यारो!
दिल लगाने से फ़ायदा क्या है

टूटने का भी डर सताये जब
घर बसाने से फ़ायदा क्या है

आँखें ये मस्त झील सी गहरी
डूब जाने से फ़ायदा क्या है

क्यों महावीर पी रहे हो मय
ग़म भुलाने से फ़ायदा क्या है
•••

(5)

रूठ जाने से, फ़ायदा क्या है
फिर मनाने का, क़ायदा क्या है

उम्र कमसिन है, उनकी ज़िद भी
कुल जमा हद से, ज़ायदा क्या है

दिल में तस्वीर है, अधूरी सी
फिर दिखाने से, फ़ायदा क्या है

ख़्वाब कितने थे, तोड़ डाले जो
ग़म तिरा उनसे, ज़ायदा क्या है

तेरे होने का फिर, न था मतलब
ख़्वाब टूटे तो, ज़ायदा क्या है
•••

(6)

अपनी क़िस्मत बुलन्द करते हैं
हम तुम्हें ही पसन्द करते हैं

दीख जाते हैं ख़्वाब कितने ही
हम पलक जब भी बन्द करते हैं

कोई मतलब नहीं है दुनिया से
बात तुमसे ही चंद करते हैं

जो न मुश्किल में हौसला हारे
सब उसी को पसन्द करते हैं

साफ़गोई की खू नहीं जाती
सब ज़ुबाँ मेरी बन्द करते हैं

•••

(7)

अजब मसअ’ला, ख़्वाब में पेश आया
बना के गदागर* का, मैं वेश आया

जगह दो उसे दिल के, कोने में यारो!
कोई राह भूला, जो परदेश आया

चले आये फिर, ख़्वाब में रू-ब-रू वो
अजब वाकया, आज दरपेश आया

कि सदका उतारे, सितारे भी तेरा
तुझे चाहने मैं, खुले केश आया

जिसे सुनके हैरान हैं, लोग सारे
तसव्वुर में परियों का, सन्देश आया

‘महावीर’ क्यों, उम्रभर आप रोये
लगी ठेस दिल को, न सन्देश आया
______
*गदागर—भिखारी, भिक्षुक
•••

(8)

ज़िन्दगी ख़ामोश ही कटने लगी
जाने क्यों तेरी कमी खलने लगी

काट डालेगी मुझे अब देखना
ये हवा तलवार-सी चलने लगी

नातवानी इस कदर छाई है अब
रौशनी भी आँख में चुभने लगी

जब ख़ुशी थी दरमियां सब ठीक था
संग मेरे रात अब जगने लगी

दोस्तो! जीने को जी करता नहीं
ज़िन्दगी अब मौत-सी लगने लगी
•••

(9)

ठेस लगी और हृदय टूटा
हर वादा था तेरा झूठा

ग़ैरों से शिकवा क्या करते
बाग़ यहाँ माली ने लूटा

प्रेम गुनाह है यार अगर तो
दे इल्ज़ाम मुझे मत झूठा

तुम क्या यार गए दुनिया से
प्यारा सा इक साथी छूटा

ऊपर वाले से क्या शिकवा
भाग मिरा खुद ही था फूटा
•••

(10)

हिरनी जैसा तेरा जादू
वन-वन महकी तेरी खुशबू

मुझको तो कुछ भी होश नहीं
रक्खूँ कैसे खुद पे काबू

मन जो बहका, तन भी दहका
आग हुई जाए बेकाबू

यौवन की मदहोश डगर है
तन मन में है तेरी ही बू

ख़ामोश हुए जाते हैं लब
आँखें ही करती हैं जादू
•••

(11)

वार तुमने ग़ैर से मिलकर किया
हाय! मेरे साथ क्यों अक्सर किया

ज़िन्दगी थी तू मिरी जाने-वफ़ा
दिल ने क्यों मातम तिरा अक्सर किया

फूल-सी नाज़ुक थी मेरी ज़िन्दगी
तुमने ग़म देकर इसे पत्थर किया

तुमने तो की है रक़ीबों से वफ़ा
दुश्मनों से प्यार यूँ जमकर किया

दास था मैं तो तुम्हारा दिलरुबा
क्यों सितम तुमने मेरे दिलपर क्या

सरनिगूँ हो नींद आती ही वहाँ
हम फ़क़ीरों ने जहाँ बिस्तर किया
•••

(12)

मैं तो आँसू हूँ के, पलकों पे, ठहर जाऊँगा
अब अगर रोका तो महफ़िल में बिखर जाऊँगा

देखकर मुझको न मुँह फेरा करो ऐ यार तुम
तेरी आँखों से गिरा तो मैं किधर जाऊँगा

दूर तक गहरी उदासी है ख़मोशी है फ़क़त
वो ही रो देगा यहाँ, मैं तो जिधर जाऊँगा

मैं लिए जाता हूँ अफ़साने वफ़ा के ऐ सनम
के तुझे ही मैं सुनाऊंगा जिधर जाऊँगा

ज़िक्र ना कीजै सनम विरहा में डूबी रात का
ग़म अगर फिर से मिला सच में ही मर जाऊँगा
•••

(13)

खूबियाँ हैं, ख़ामियाँ हैं, हर किसी किरदार में
दर्ज़ है सब कुछ वहाँ, अल्लाह के दरबार में

नेकियाँ करता रहा मैं, पाप यूँ कटते रहे
कर्म अपना था फ़क़ीरी, दोस्तो संसार में

बेवफ़ाई, छल-कपट करते रहे हम उम्रभर
क्या छपेगी ये ख़बर, शायद कभी अख़बार में

राह कब किसने चुनी है, ठीक अपने वास्ते
सब भटकते ही रहे, दुनिया के कारोबार में

इश्क़ का हो खेल चाहे, जंग का मैदान हो
मैं तनिक विचलित नहीं हूँ, जीत में या हार में
•••

(14)

तुम जो आ जाते जीवन में
फिर कोई न रहता उलझन में

विरहा में इक-इक पल भारी
आग लगी है मन उपवन में

भूल नहीं पाया हूँ इक पल
छवि तेरी देखूँ दरपन में

रोते रोते बीते जीवन
जी रहा हूँ जैसे सावन में

जीने को तो जी ही लूंगा
पर काटूँ कैसे यौवन में
•••

(15)

हसीं चेहरे पे आँसू, क़यामत है
खुदा का क़हर है, और आफ़त है

नज़र भर देख लेना, ज़रा हँसना
तुम्हें किसने कहा, ये महब्बत है

सभी को खूब भाये तिरी सूरत
इसी से तूने तोड़ी क़यामत है

तुझे किसने कहा है कि खुश हूँ मैं
ग़मों में मुस्कुराना, ये फ़ितरत है

अदा समझे हो दिल तोड़ देने को
यही क्या दिल लगाने की क़ीमत है

कहाँ समझे महावीर तुम उनको
जहाँ दिल टूटना ही महब्बत है
•••

(16)

कोई अब इक सुहाना ख़्वाब बुन ले
मिरे मालिक मिरी फ़रियाद सुन ले

तड़प उट्ठे जिसे सुनकर ज़माना
दिवाने दर्दे-उल्फ़त की तू धुन ले

न कर धोका किसी से ऐ बशर तू
बुराई करने वाले से भी गुन ले

है आलम बेवफ़ाई का मगर तू
नए धागे वफ़ा के यार बुन ले

घड़ी भर को है मेला ज़िन्दगी का
संभल जा नेक कोई राह चुन ले
•••

(17)

रोते रहे नसीब को, बदलाव था कहाँ
था दृष्टिभ्रम* ही वो तो, ठहराव था कहाँ

होता जो इश्क़ आप को, रोते हमारे संग
था वो फ़क़त फ़रेब ही जब चाव था कहाँ

फूटा नसीब था सो, नहीं कुछ गिला किया
टूटा गुरूर** यार तो फिर, ताव था कहाँ

दिलबर नहीं मिला है, हाँ रब को पा लिया
यूँ इश्क़ से उन्हें मेरे भी लगाव था कहाँ

कैसे वफ़ा की राह में, ठहरे यहाँ कोई
चलना ही था नसीब में, ठहराव था कहाँ
________
*दृष्टिभ्रम—मरीचिका
**गुरूर—घमंड
•••

(18)

अजब मुझपे नशा होने लगा है
महब्बत में ये दिल खोने लगा है

दिवाना सुख में तेरे हँस रहा जो
तुम्हारे दर्द में रोने लगा है

कई रातों से जागा था परिन्दा
सुहाने ख़्वाब में सोने लगा है

नई दुनिया बसाने की है हसरत
वफ़ा के बीज दिल बोने लगा है

बही गंगा महब्बत की तभी से
दिवाना पाप सब धोने लगा है

•••

(19)
है अजब दास्ताँ, जाल पे जाल है
इश्क़ में ज़ालिमों की, कोई चाल है

मुझको आहट से, पहचान लेती है वो
आँख में उसकी, किस जीव का बाल है

सादगी से मुझे क़त्ल करती है वो
पूछती है फिर कि, मेरा क्या ख़्याल है

हर अदा भेड़ियों-सी मिली है उसे
ऐसी मासूमियत, भेड़ की खाल है

जाने क्या सोच के रब ने उसको गढ़ा
जी का जंजाल है, सुर है ना ताल है

सिरफिरे आशिक़ों का अदब देखिये
कहने वाले कहें, वाह क्या माल है

खोई है आशिक़ी, झुर्रियों में कहीं
इश्क़ में अपनी ना, अब गले दाल है
•••

(20)

ख़्वाब थे टूटने के लिए
यार था रूठने के लिए

दिल लगाया फ़क़त दिलरुबा
इश्क़ में टूटने के लिए

दुःख में सब यार हैं लापता
थे मज़ा लूटने के लिए

उम्र तो कट गई अब खुदा
जान है छूटने के लिए

देखिए वृक्ष पे कलरव* है फिर
कोंपलें** फूटने के लिए
________
*कलरव—पंछियों के चहकने की आवाज
**कोंपलें—वृक्ष की नई पत्तियाँ
•••

(21)
मुश्किल से घबराना क्या जी
दुःख से भी डर जाना क्या जी

गर ना हो मुश्किल जीवन में
जीने का मज़ा पाना क्या जी

खुशबू फैलाओ दुनिया में
फूलों-सा मुरझाना क्या जी

बदली ग़म की छट जाएगी
जग के रात बिताना क्या जी

दुनिया में मुसाफ़िर हैं सभी
कोई भी पहचाना क्या जी

मौत सभी को आएगी जब
धन के पीछे जाना क्या जी

ग़ैर नहीं दुनिया में कोई
पत्थर फिर बरसाना क्या जी

यादों में है हरदम ताज़ा
प्रीत का दर्द पुराना क्या जी
•••

(22)

दो घड़ी का है मौसम सुहाना
ग़म की बारिश में गाये दिवाना

है हंसी इश्क़ की तो घड़ी भर
उम्रभर को है ज़ालिम ज़माना

तान के सीना मैं भी खड़ा हूँ
आज क़ातिल का देखूँ निशाना

है खुला आसमां सर के ऊपर
मुफ़लिसों का कहाँ है ठिकाना

ये जहां सब जहाँ मेहमाँ हैं
जाने कब कौन होवे रवाना
•••

(23)

इश्क़ में अश्क़ ही तो बहाये
फिर भी कमबख़्त दिल तुझपे आये

बेवफ़ाई है फ़ितरत तुम्हारी
फिर भी दिल गीत उल्फ़त के गाये

जानता हूँ कि ज़ालिम बड़े हो
तीर नैनों से क़ातिल चलाये

रात विरहा की कटती नहीं है
याद तेरी जिया को जलाये

भीड़ में अजनबी हूँ यहाँ मैं
तुम कहाँ मुझको ले के ये आये

आरज़ू थी मुझे महफ़िलों की
ग़म के बादल फ़क़त अब तो छाये
•••

(24)

सदियाँ कई चुकीं गुज़र
थे दहर* में कई शहर

उत्थान थे ज़वाल** भी
देखे खुदा कई क़हर

इतिहास का है सच यही
सुकरात को दिया ज़हर

फिर इंक़लाबी शोर है
फिर सीने में उठी लहर

जलता रहा ब्रह्माण्ड में
था ख़ाक में ही तो दहर
–––––––––––––––
*दहर — काल, समय, वक्त, युग, दुनिया, जगत, क़र्न
**ज़वाल — पतन, अवनति, उतार, ह्रास
•••

(25)
देखा तुझे मचल गए
फिर प्यार में पिघल गए

पत्थर कहाँ थे हम सनम
देखा तुझे पिघल गए

कब हाले-दिल सुने मिरा
जब कुछ कहा निकल गए

फिर चोट ना लगी मुझे
धोका मिला संभल गए

अच्छा हुआ जो प्यार में
ठोकर लगी संभल गए

तृष्णाएँ तो नहीं मिटी
अरमान सब निकल गए

हालात तो वही रहे
तुम कितने ही बदल गए

हम तो रहे वही मगर
मौसम कई बदल गए
•••
(26)

चाहे देर सबेर कहे हैं
वक़्त लिया तब शेर कहे हैं

यूँ बाज कई मौक़ों पर भी
तत्काल कई शे’र कहे हैं

खूब कहा है सबने उनको
मैंने जितने शे’र कहे हैं

मीरो-ग़ालिब पे भी मैंने
बेहद अच्छे शे’र कहे हैं

मीरो-ग़ालिब की बस्ती में
सब मुझको भी दलेर कहे हैं
•••

(27)

खूब कहा हजरत ने, सदियों से खरा है
भूखा है वही, जिस का पेट भरा है

चाहे कहीं पे, कोई भी लड़ाई हो
मानवता के लिए मानव ही मरा है

घायल की गति तो घायल ही जाने
सावन के लिए तो सब कुछ ही हरा है

है तबाही देन सियासत की सर जी
जो हर इल्ज़ाम ग़रीबों पे धरा है

सच ही कहा कहने वाले ने यारो
कोई दुनिया में मरे बिन भी तरा है
•••

(28)

आँसुओं में रंग होता
तू अगरचे संग होता

गर वफ़ा मिलती सभी को
कोई ना फिर तंग होता

जान जाता यार तुझको
यूँ न फिर मैं दंग होता

उम्रभर यदि साथ देते
रंग में क्यों भंग होता

दुःख छिपाकर यूँ न पीते
कुछ न फिर हुड़दंग होता
•••

(29)

इश्क़ के ज्यों चराग़ जलते हैं
दिल जले यों कि दाग़ जलते हैं

हिज़्र में ये बहार का मौसम
कितने ही सब्ज़ बाग़ जलते हैं

ख़ाक़ उड़ने लगी तसव्वुर में
आशिक़ों के दिमाग़ जलते हैं

है फ़क़त शा’इरी महब्बत भी
जब हज़ारों सुराग़ जलते हैं

मयकशी* कुछ न पूछ ऐ साक़ी
रोज़ कितने अयाग़** जलते हैं
–––––––––––––––
*मयकशी — मदिरापान
**अयाग़ — शराब के प्याले
•••

(30)

हर कोई खुद से ही तंग है
मेरी भी मुझसे ही जंग है

तन टूटा-सा है भीतर से
पर मन बाहर सबके संग है

अब तन्हाई के इस रंज में
ग़म का एक नया ही रंग है

आँसू मुस्कान में छिपते रहे
यूँ पीने का अपना ढंग है

कपड़े तन को ढाँपे हैं पर
मन आदम युग से ही नंग है
•••

(31)

आप से मिलने लगे
तीर खुद चलने लगे

संगदिल भी टूटकर
इश्क़ में ढलने लगे

चाँद को जाना तभी
ख़्वाब जब पलने लगे

दिल गया तो होश भी
नींद में चलने लगे

आप से नज़रें चुरा
खुदको ही छलने लगे
•••

(32)

रूह से राब्ता मिला खुद का
इश्क़ में यूँ पता मिला खुद का

प्यार के सौदे में मुझे अक्सर
दिल जिगर लापता मिला खुद का

जल उठे यूँ चराग़ उम्मीद के
भूले को रास्ता मिला खुद का

फिर कमाँ तानते कहाँ उन पर
तीर खाके पता मिला खुद का

मिल गया मुझको तो खुदा जैसे
उनको भी रास्ता मिला खुद का
•••

(33)

ये ग़म के आँसू हैं, मत बरसात कहो
कुछ मेरी सुनो, कुछ अपने हालात कहो

यूँ रचिये गीत ग़ज़ल, जो दिल को छू ले
उतरो गहरे सागर, फिर जज़्बात कहो

सुख-दुख का कोई अहसास लिए यारो
कम शब्दों में, हर मौसम की बात कहो

दरबारी कवि बनकर झूठ नहीं कहना
दिनको बोलो दिवस, तमस को रात कहो

ऐ अश्क़ों तुमने जीना सिखलाया है
कर लो स्वागत, खुशियों की बारात कहो
•••

(34)

उत्कर्ष मुबारक़ हो आप को
नव वर्ष मुबारक़ हो आप को

सालों साल रहे होंठों पर
यह हर्ष मुबारक़ हो आप को

जीत मिले हर दुख-तकलीफ़ में
संघर्ष मुबारक़ हो आप को

बीते अच्छे वर्षों के जैसा
यह वर्ष मुबारक़ हो आप को

हर चीज़ नई सी लगती है
नव हर्ष मुबारक़ हो आप को
•••

(35)

तराज़ू ले के, तोलिये सर
सदा बात यूँ, बोलिये सर

ग़लत शब्द कोई चुभे ना
गला तब ही, ये खोलिये सर

जहाँ दिल दुखाया किसी का
वहीं काँटे भी, बो लिये सर

फ़क़ीरों का घरबार क्या है
गए जिसके दर, सो लिये सर

जहाँ सदके में सिर झुकाया
वहाँ प्रीत में, खो लिये सर

•••

(36)

यक़ीं मुश्किल है, उनको पा गया हूँ मैं
ये कैसे मोड़ पर अब आ गया हूँ मैं

खुमारी इश्क़ की जाये नहीं दिल से
कि अपने आप से घबरा गया हूँ मैं

धड़कता है उन्हीं का नाम लेके क्यों
संभल ऐ दिल कि धोका खा गया हूँ मैं

महाभारत सी कोई जंग है भीतर
ग़ज़ब ये कश्मकश! उकता गया हूँ मैं

ग़ज़ल कहते हुए टूटा भरम मेरा
लगा ग़ालिब को कुछ-कुछ पा गया हूँ मैं

•••

(37)

ये नेता कारोबारी हैं
सारे जनतन्त्र पे भारी हैं

दाँत गड़ाए बैठे यारो
ये सारे घाघ शिकारी हैं

वोट मिले तो सत्ता पाए
ये मद में चूर जुआरी हैं

इनकी महिमा कैसे गाऊँ
अभिनेता हैं, दरबारी हैं

तानाशाही मत समझो जी
ये सब तो प्रेम पुजारी हैं

इनके बीच नहीं आना तुम
ये तलवारें दो धारी हैं
•••

(38)

ये क्या खूब ग़ज़ल है
जैसे ताज महल है
तेरा हुस्न कहूँ क्या
खिलता कोई कमल है
तन तो सुन्दर है ही
और हृदय निर्मल है
काज करे जो काले
कहता सब ही धवल है
देख उसे न भरे जी
उसका रूप नवल है
छल करता यार मिरा
और कहे वो विमल है
ज़िक्र है रोज़े-हश्र* का
या फिर, रोज़े-अज़ल** है
ज़हर फ़िज़ाँ में जो घुला
नफ़रत, रद्दे-अमल*** है
_________
*रोज़े-हश्र—प्रलय-निर्णय का दिन, क़यामत
**रोज़े-अज़ल—आदिकाल, प्रथम दिन
***रद्दे-अमल—प्रतिक्रिया
•••
(39)

कहाँ हुस्न वाले सितम देखते हैं
वफ़ा करने वालों का दम देखते हैं

कभी भी न जाना मिरा हाल उसने
कहाँ मेरी आँखें वो नम देखते हैं

उन्होंने ही मजनू पे पत्थर उठाये
वफ़ा की मिसालें जो कम देखते हैं

हबीबों की चिंता भला कब उन्हें थी
रक़ीबों की जानिब सनम देखते हैं

बनाकर दिवाने का भेष यारो
तमाशा-ए-उल्फ़त भी हम देखते हैं
•••

(40)

साक़ी मुझे अब पूछता नहीं
प्याला अजब है, टूटता नहीं

वो प्यार की चाहत कहाँ गयी
क्यों दिल इसे अब लूटता नहीं

पागल रहे जिनकी तलाश में
क्यों दिल उन्हें अब ढूँढ़ता नहीं

टूटा खुदी से राब्ता जहाँ
कोई तुम्हे फिर पूछता नहीं

अन्तरमुखी इक क़ैद में जिया
क्यों मोह सबसे छूटता नहीं
•••

(41)

पैसे के आगे ईमान डोलता है
ये हम नहीं खुद ईमान बोलता है

दिल थाम देखो खूब ये तमाशा
कोई शराफ़त का वज़्न तोलता है

डरता है सच कहने और सुनने वाला
जब आपके कोई भेद खोलता है

अक्सर बताते ईमानदार खुद को
रह रह उन्हीं को ईमाँ टटोलता है

अपराध से जो भी बच गया जहाँ में
ऊपर खुदा उसके पाप तोलता है
•••

(42)
छूटी पतवार है
नैया मझदार है

होनी के आगे
बन्दा लाचार है

दुःख पाये प्यार में
अच्छा उपहार है

गिरते संस्कार ने
टपकाई लार है

नागिन से घातक
आदम का वार है

समझो यदि बात को
तो बेड़ा पार है

जन्मे शिशुओं पे
क्यों आर्थिक मार है

शहरों में बाढ़ ये
गांवों का भार है

रिश्तों की टूटन
कैसा उपकार है
•••

(43)

हुए हैं दार्शनिक, इस जहां में चंद ऐसे
जिओ यारो, जिया है विवेकानंद जैसे

जहां हैरान था देख सन्यासी का जादू
ग़ुलामी में भी आखिर, ये सोच बुलंद कैसे

गया तू भूल क्यों विष्णु* को, कुछ याद तो कर
घमण्डी नीच, मारा गया था, नन्द** कैसे

ज़हर सुकरात को दे दिया पर आज भी वो
अमर किरदार है, कोई सोच बुलंद जैसे

बताया आपने गोरे की थी हुकूमत
तो फिर अध्यात्म में था विदेशी मन्द कैसे
________
*विष्णु — आचार्य चाणक्य को ही कौटिल्य, विष्णु गुप्त और वात्सायन कहते हैं।
**नन्द — मगध का क्रूर सम्राट घनानंद, जिसने चाणक्य के पिता आचार्य चणक का सर कटवाकर राजधानी के चौराहे पर टांग दिया गया।
•••

(44)

लटके हुए सलीब से
कौन लड़े नसीब से
पास तो आ ऐ ज़िंदगी
छू लूँ ज़रा क़रीब से
बात न सुन रक़ीब की
दूर न जा हबीब से
नग्न समाज हो गया
डरने लगा अदीब से
रोज़ नयी वबा* यहाँ
ख़ौफ़ ज़दा तबीब** से
जाने मुझे ही क्यों मिले
लोग सदा अजीब से
____________
*वबा—महामारी, संक्रामक रोग जिससे बहुत लोग साथ – जल्दी मरें; छूतवाला रोग
**तबीब—चिकित्सक; उपचारक, चिकित्सक, वैद्य
•••

(45)

मुँह से बरबस निकला वाह
पत्थर कैसे पिघला वाह

देखा तुझको जान गए जी
पूनम का शशि मचला वाह

छीन लिए हैं तुमने होश
तुमपे मैं भी फिसला वाह

फूल दिया रखने को मैंने
पुस्तक में ही कुचला वाह

रौशन तेरी बज़्म हुई है
परवाना खूब जला वाह
•••

(46)

के हर गुनाह को टटोलता है
मुझे ज़मीर यूँ कचोटता है

मिरे खुदा मिरे गुनाह बख़्श
तू नेक हो जा, दिल ये बोलता है

उसे बशर भले न माने चाहे
उसे पता है तू जो सोचता है

हिसाब दर्ज़ हैं बही में उसकी
तुला में पाप सारे तोलता है

भले क़बूल मत करो गुनाह
ज़मीर राज़ गहरे खोलता है
•••

(47)

तिरी बज़्म से, सोचकर ये उठे थे
तिरे साथ से हम, अकेले भले थे

ग़मे-हिज़्र की रातें, घनघोर काली
ज़रा याद करना, कभी हम हँसे थे

हुआ इश्क़ गहरा, लगा सख्त पहरा
मुलाक़ात के फिर, नए सिलसिले थे

तुझे पा के, नींदे गंवा के, मिला क्या
हुई ग़म की बारिश, न बादल फटे थे

न पूछो ऐ यारो, फ़साना-ए-उल्फ़त
‘महावीर’ वो लम्हे, कितने खले थे
•••

(48)

पिलाये सोमरस, मदिराभवन में, आह! मधुबाला
बड़ी ही याद आती है मुझे, बच्चन की मधुशाला

करे वो नृत्य, मनमोहक, नये चलचित्र गीतों में
कि खुल ही जाये, पीने वाले की, अब अक्ल का ताला

हे देवी, प्रेम पथ पर ले चलो मुझको, है विचलित मन
पड़ा अनभिज्ञता का, भक्त के मन पे मकड़ जाला

मुझे पीटे यहाँ उद्दण्ड, कुछ रक्षक कि समझा दो
पड़ा अब तलक दुष्टों का, महाकवि से कहाँ पाला

हे देवी पीने दो अधरों से ही, अब व्यथित प्रेमी को
मिटेगी प्यास अन्तरमन की, कुछ तो मेरी मधुबाला
•••

(49)

आप रहे सर्वेसर्वा, सबके सरकार यहाँ
छोड़ चले आख़िर, दुनिया का कारोबार कहाँ

मालूम तुम्हें था जाना है, इक दिन संसार से
फिर क्यों पाप किये, पुण्य कमाते सौ बार जहाँ

लूट लिया करते दानव, यूँ तो पशु जीते हैं
नेकी न किये मानव तो, है तुझे धिक्कार यहाँ

अब पुण्य कमा ले कुछ, छोड़ दे ये गोरखधन्धे
हर शख़्स अकेला है, न किसी का घरबार वहाँ

काल कभी भी आ धमके, क्यों हैराँ हो मित्रो
आगाह करूँ सिर्फ़ यही, कवि का अधिकार यहाँ
•••

(50)
जो पास नहीं वो अच्छे हैं
वो नेक बड़े ही सच्चे हैं

दूर नहीं वो दिल से यारो
जो भी वादों के पक्के हैं

भर आये मन ये सुन-सुनकर
आप बड़ी उम्र के बच्चे हैं

मैं हास्य करूँ उत्प्न्न हमेशा
लोग कहें अक्ल से कच्चे हैं

यूँ दिल उन पे फ़िदा है यारो
वो रबड़ी तो हम लच्छे हैं

खूब कहूँ गीत-ग़ज़ल मैं भी
सब सुनके हक्के-बक्के हैं

दिल का दौरा पड़ जायेगा
यदि जमते खून के थक्के हैं

ये भीड़ सफ़र में, क्या कहना
ये आबादी के धक्के हैं
•••

(51)

रूठ जाओ तो ग़ज़ल हो
खिलखिलाओ तो ग़ज़ल हो

तुम खड़े हो दूर कबसे
पास आओ तो ग़ज़ल हो

तेरे ग़म में रो रहा हूँ
मुस्कुराओ तो ग़ज़ल हो

इश्क़ में है बेक़रारी
चैन पाओ तो ग़ज़ल हो

कल का एतबार क्या है
आज आओ तो ग़ज़ल हो

दिल में मेरे आज क्या है
जान जाओ तो ग़ज़ल हो

मेरे जैसा गीत कोई
गुनगुनाओ तो ग़ज़ल हो

यार फिर से ज़िन्दगी में
लौट आओ तो ग़ज़ल हो

छोड़ भी दो कड़वी बातें
भूल जाओ तो ग़ज़ल हो

काल पर निशान अपने
छोड़ जाओ तो ग़ज़ल हो

‘मीर’ मेरा रहनुमा है
मान जाओ तो ग़ज़ल हो

•••
––––––––––––
*मीर—खुदा-ए-सुख़न मीर तक़ी मीर।
*रहनुमा—राह दिखाने वाला, पथप्रदर्शक।

Language: Hindi
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