इंसान का मजहब
बैठे सब खुद का लिये किसको सुनाया जाए
अपना गम लेके कहीं और न जाया जाए
भेद कोई न हो इंसान रहें सब हो कर
एक मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए
एक क़िरदार मिला जो है निभा लें उसको
क्यूँ ख़ुदा खुद को यहाँ ख़ुद से बनाया जाए
ज़द में आकाश है क़दमों के तले है ये ज़मीं
हौसलों को लगा पर क्यों न उड़ाया जाए
हो सबब कोई कि मरने पे सभी याद करें
चलते चलते ज़रा नेकी भी कमाया जाए