इंसानियत का कोई मजहब नहीं होता।
देश कई होड़ से गुजरे यहाँ ।
अपने मुल्क की आजादी में हिंदु-मुसलमान, जनजाति सब एक-साथ यहाँ लङे हैं ।
और आज के लोग हिंदु और मुसलमान किए है।
मंदिर और मस्जिद में सिमटे है ।
बदले की आग में ज्वालामुखी हो लिए है ।
कही रमजान नही होने देंगे ।
अजान दस्तूर नही होने देंगे ।
ये मजहब के दुश्मन है या इंसा के।
जो ईश्वर के इबादत का इंतजाम नही होने देंगे ।
अनेको देशो ने दुनिया को नए-नए आविष्कार दिए है।
और भारत में अभी भी लोग हिंदू और मुसलमान किए है ।
कुर्सी का किस्सा, हिंसा की मंशा।
इन राजनेताओ ने अपने स्वार्थ के आगोश में क्या-क्या नही लिए है।
छोङ सब तरक्की फरमान के रास्ते ।
छोङ ईमान, रहनुमाई के इरादे ।
बस हिंदू -मुसलमान की हिंसा भङकाने में लगे है ।
सातवां अजूबा अपने देश का ताजमहल न होता ।
अगर हिंदुस्तान में शाहजहां सा मुगल न होता ।
तिरंगा फहराने को लाल किला की प्राचीर न होता ।
अगर नक्काशकारो ने देश नही मजहब देखा होता ।
कहते है मुसलमान चैन- अमन मे आतंक का बीज बोता है ।
अगर ऐसा होता तो अब्राहम लिंकन अमेरिका का राष्ट्रपति न होता ।
ए.पी.जे. अब्दुल कलाम भारत की सुरक्षा का दावेदार न होता ।
साहिर,कैफी,जावेद,शकील हसरत ,मजरूह, कामिल शांति मोहब्बत का गीतकार न होता।
कही गुम्बद कही मीनारे ।
कही नक्काशी कही किनारे ।
कही दिल मे जलता हुआ नफरत के सरारे।
मुसलमान भी थे शरीक भारत को दासता से मुक्त कराने में ।
सर सैय्यद अहमद खां,मौलाना अबुल कलाम।
अच्छा आप ही बताओ कौन था अशफाक उल्ला खां।
1965 के हिंद -पाकिस्तान के युद्ध में टैंक के उङा डाले।
कौन था वो वीर अब्दुल हमीद शहीद।
जरा इक नजर इस पर भी तो डाले।
काश्मीर द फाइल्स जब से हिंदुस्तान देखा है ।
सच मानो बहुत अच्छी तरह से इस फिल्म ने सबके आंख में धूल झोंका है।
हिंदु बदले मे बादल सा मडरा रहे है ।
अपने देश को ही घरेलू संकट में डाल रहे है ।
अगर ये गजल, मौशिकी न होती।
खुदा की कसम फिजाओ में कभी सर्दी नही होती ।
अंगारो की लपटो से बस होते मरूस्थल के मंजर ।
रूह और दिल को कभी मोहब्बत का एहसास नही होता ।
अगर खुले आसमान से धरती पर मोहब्बत का बरसात नही होता।
सब छोङ अस्मत के मुद्दे पर लङे है ।
भगवा और हिजाब पर अङे है ।
इस देश ने आखिरकार कौन सा ड्रामा खड़े किए है ।
जब देखो तब हिंदु -मुसलमान किए है ।
सिक्का एक ही है -दो पहलू है उसके हिंदुत्व और इस्लाम ।
एक में सूर्य निकले है,तो दूसरे में चांद उगे है ।
प्रेम के अनुभूति जाति और मजहब देखकर नही की जाती ।
नही तो डाल्फिन किसी को नही बचाती ।
इंसानियत और प्रेम के भाषा समझते है लोग सभी ।
नही तो बसंत मे पेङ से पत्तियां नही निकलती ।
ये तारे, नक्षत्र ये शरीयत, आयत प्रपत्र ।
गलत है जो विरोध करेंगे उसका ।
खुदा ने कुछ भी नही लिखा सिवाय बुद्धि देने के ।
उसको भी तो किसी ने अपने दिमाग से लिखा है ।
पर सही क्या है, गलत क्या ।
वक्त के हालात को देखते हुए इंसान ने उसे खुद बदला है ।
तलाक था पहले बस इक आपसी कलह का वजह।
हर रात के बाद आती है सुबह।
सती प्रथा का अब कहां है निशां ।
भूल चुका कब का उसे जहां।
महिला से ही तो हम है धरती भी है की मां की तरह।
पर्वतो से निकलकर नदियो ने कई सरहद डांके है ।
मिलकर समंदर में अंततः अपने गहराईयो में झांके है ।
हम है की छोङ खुशियो के पल को ।
गम,क्लेश,द्वेष के आंधियो में उलझे है ।
बेवजह ही हम आपस में भिङे है।
ये कौन है नासमझ जो हिंदू मुसलमान किए है ।