इंतज़ार होली का
मन मेरा भी करता है की मैं भी
पहले की तरह होली खेलूँ
रंगों से तर – ब – तर हो
अपने सारे दुख भूलूँ ,
होली वैसी जैसी माँ के आँगन में
जी भर – भर कर बेसुध हो खेलती थी
होली वैसी जैसी सखियों संग
उन्हीं से हाथ छुड़ा वापस उन्हीं से जा लिपटती थी ,
ऐसा जोश होता था
ना खुद का होश होता था
बिना खाये भाँग की गोली
मन गज़ब का मस्त होता था ,
ना मन का मलाल
ना कोई सवाल
की क्यों तुमने लगा दिया
मेरे गालों पर गुलाल ,
अनजान के घर भी
गुजिया खा आते थे
फागुन में फगुये की
सौगात दे आते थे ,
अब तो ललचती आँखों से
सबको होली खेलते देखते हैं
नही नही नही हम होली नही खेलते हैं
बस यही कहते हैं ,
इंतज़ार है मुझे भी
फागुन की फगुआहट का
आके चुपके से रंग लगा दे कोई
मुझे ऐसी किसी आहट का ।
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा , 04/02/2020 )