इंतज़ार… वृद्धा आश्रम की माँओं का
हमने बड़े जतन से
प्रेम और ममत्व से
तुम्हारी नज़रें उतार कर
अपनी पलकों पर बिठा कर
रखा तुम्हें संभाल कर ,
तुम्हारे गिरने से पहले
खुद ही चीख उठते थे
लगता था तुम ही नही
धड़ाम हम ही गिरते थे ,
तुम्हारी हर उपलब्धि पर
त्योहारों सा जश्न मनाते थे
दिवाली तो दिवाली
दीया उस रोज़ भी जलाते थे ,
नाल कैसे टूट गयी
प्रेम की नदी कैसे सूख गयी
हमारे इस हाल पर
तुम्हें नींद कैसे आ गयी ?
पहले अपना परिवार था
अब यही परिवार है
पहले तुम्हीं संसार थे
अब यही संसार है ,
आँखें अब भी तकती हैं राह
कान तरसते हैं तुम्हारी आहट को
मन चाहता है हर पल
सूकूँ दे दो हमारी राहत को ,
दिल स्वीकारता नही
अपनी इस हालत को
बेचैन रहता है
तुम्हारी ज़रा सी चाहत को ,
जैसे तुम स्कूल से आते ही
लिपट जाते थे मुझसे
मैं भी लिपटना चाहती हूँ
जाने से पहले तुमसे ।
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा , 05/11/2019 )