आशाओं की बस्ती
ढलके सूरज, ढलके चंदा, ढलके उमर तमाम रे
आशाओं की इस बस्ती में, क्यों इतने अरमान रे
रोता-रोता जब तू आया, इस भोले संसार में
चहके-महके धरती सारी, चूमे माथा प्यार में
बंद-बंद थीं आंखें फिर भी, मुट्ठी बांधे हाथ रे
उड़ा गगन में मन का पंछी, अपने-अपने धाम रे।
चढा जो सूरज छाई जवानी, सुर सपने ताल में
ज्यूं कली ने दर्पण देखा, फंसा भंवरा जाल में
होता न यदि यह फसाना, क्या होता परिवार रे
वंश-बेल की है सुख आभा, घर अपना प्रधान रे।।
पेट-पीठ पर लदी थी पीढ़ी, भूला दिन रात गई
दो पांवों की चक्की के संग, पिस गेहूं बात गई
क्या खोया, क्या है पाया, सोचे कब इनसान रे
दो सपनों का रंगमहल बस, है ऊंची उड़ान रे।।
सूर्यकांत