आवारगी मिली
गलियों में उनकी जाकर,
मैं बन गया दीवाना
निकले वो मुस्कराकर।
लहराये काले गेसू
जब भी हवा चली।
मैंने किसी को चाहा तो,
आवारगी मिली।
नज़रें मिली थी एक दिन
उनकी निगाह से।
अनजान था मैं पहले
चाहत की राह से।
अब दिन गुजरता लेकिन
रातें बहुत खली।
मैंने किसी को चाहा तो,
आवारगी मिली।
प्याले में थी झलकती,
मासूम शक्ल जिनकी।
पैमाना कैसे पीता,
मौजूदगी थी उनकी।
बिन मय पिये ही निकला,
जो बात थी भली।
मैंने किसी को चाहा तो,
आवारगी मिली।
‘अदना’ ने शहर छोड़ा,
गलियों को है भुलाया।
चाहत थी कि मिले वो,
लेकिन ये हो न पाया।
दिल से निकाला मैने,
हसरत थी जो पली।
मैंने किसी को चाहा तो,
आवारगी मिली।
सतीश सृजन