आलोचक-गुर्गा नेक्सस वंदना / मुसाफ़िर बैठा
मैं आलोचक हूँ
मगर उपन्यास नहीं पढ़ता।
मेरी मर्ज़ी
मैं आलोचक हूँ
मगर टार्गेटेड लक्ष्य को ध्वस्त करता हूँ
मेरी मर्ज़ी
मैं आलोचक हूँ
मगर भक्त पलता हूँ
उसके मुंह चाटता, उससे मुंह चटवाता हूँ अपनी
मेरी मर्ज़ी
मैं आलोचक हूँ
मैं दस पन्ने में दस की आलोचना समेटता हूँ
मगर भक्त को अकेले पांच पन्ने देता हूँ
मेरी मर्जी
मैं आलोचक हूँ
मगर आत्मरक्षा में
फ़ेसबुक पर कुत्तगुर्गों को तैनात रखता हूँ
मेरी मर्जी
मैं आलोचक हूँ
मगर ईर्ष्या द्वेष ही मेरे आलोचना धर्म की ख़ुराक़ है
मेरी मर्जी
मैं आलोचक हूँ
मगर सारी अच्छी कमाई, अबके सड़े लेखन से अपनी गंवाता हूँ
मेरी मर्जी!
*डिस्क्लेमर :
मौके का आलोचक दलित नहीं हो सकता, ऐसा नहीं है!