आनदं की खोज मैं
क्यों जूझ रहा इंसान आनदं की खोज मैं,
गवाँ बैठा है होश दुनिया की चकाचौंध मैं,
भटका है जो डगर विकत लहरो की मौज मैं,
जैसे उठती हो मृगतृष्णा कस्तूरी की खोज में. ll
दिन को चैन मिले न रात को आराम,
सरपट दौड़ता अश्व सा जीवन को ठेलता,
फिक्रमंद है, तनावपूर्ण भी, कैसे पाये,
खो रही जो मुस्कान, विलासिता की होड़ में. ll
यंहा ढूंढे, वंहा ढूंढे,जाने क्यों ढूंढे मुर्द आबादी में,
बंगले में ना गाडी में,मिलेगी सोने में ना चाँदी में,
ये तो अनमोल प्रसाद भोली भाली दुआओ का,
जो बिकती नहीं सौगात, दौलत के बाजार में. ll
भूल गया अब तो पता भी ईश के द्वार का,
मिलता है सच्चा सुख जिसकी आगोश में,
पाना है आनद जो, त्याग मोह अतिलोभ का,
मिल सकता है जो तुमको प्रकृति की गोद में. ll
आनंद तो अनुभूति है खोज सके तो खोज ले
मिल ना सकेगी शैतानो की अंधाधुंध घुड़दौड़ मैं
व्यर्थ है ये धन दौलत,कुछ अंत समय की सोच ले
यही जीवन है आनंद का आधार परिपूर्ण कर मौज ले ll
———-::डी. के. निवातियाँ::——–