आज़ के दोहे
कटी फसल खेतों पड़ी , ऊपर से बरसात।
कृषक से ही पूछिए , कैसे सोए रात।।1
: ताजमहल की भव्यता , मजदूरों के नाम।
धन्य धन्य उसकी कला , नित नित करूं प्रणाम।।2
धन्नासेठों के महल , मजदूरों की देन ।
पर उसकी किस्मत लिखा भोगे दुख दिन रैन।3
: हुक्मरान ही जब करें , चोरी में सहयोग।
पाण्डेय फिर उस तंत्र को ,कैसे लिखे निरोग4
आज स्वार्थ की डोर से , हर रिश्ते की चाल।
नीति नियम सब पंगु हो , बैठे घर बेहाल ।।5
अंधभक्त के स्वाद को देनी होगी दाद।
पाखाना भी लग रहा ,इनको महा प्रसाद।।6
कविता में षड़यंत्र है , कविता में बहु शोर ।
पद चुम्बन ले चल पड़ी ,मिली भगत की ऒर ।।7
प्रतिभा बिन यदि पद मिले , है धृतराष्ट्र समान।
बिन पद भी प्रतिभा सदा , बनती महान।।
घूँघट में अद्भुत लगे , गोरी तेरा रूप।
जैसे छन कर आ रही, मेघश्याम से धूप।।10
नफरत ,हिंसा , छल कपट,झूठ और अज्ञान।
ऐसे में प्रतिभा भला ,पाए क्यों सम्मान।।11
लाल किले की भूख का , करे कौन अनुमान ।
रोज चुनावी समर में ,मंदिर मस्जिद गान।।12
[जिसको कहना चाहिए ,उसको रक्खा मौन ।
और बहस करवा रहे ,आखिर सच्चा कौन।।13
ढोंग धतूरे रोज कर , कहते हैं ये धर्म ।
सत्ता पर पैनी नजर ,छल प्रपंच के मर्म।।14
मेहनत ,दिशा ,जुनून यदि , होते रहें सटीक।
जा सकता इंसान फिर , ईश्वर के नजदीक।।15
सहनशीलता अधिक भी , घुटन बन रही आज।
इस पर भी जग खुशनहीं , बिना शर्म अरु लाज।।16
चौखट पर शुभलाभ का लिखना तभी सटीक ।
शुभ विचार परहित रहें , हो दिल भी जब नीक।।17
महलों का ही स्वेद अब ,दिखता सदा गुलाब ।
भीगा तन मजदूर का , सदा रहा नायाब।।18
चौपालों के मौन व्रत , बरगद दिखें उदास ।
बगिया सूखी प्रेम की ,पतझड़ सा मधुमास।।19
हम करते थे इस तरह, अपने मन की बात ।
किसकी काली नजर से, बिगड़ गए हालात।।20
जाने कैसी सभ्यता ,कैसा है परिवेश।
अहंकार नित दे रहा ,ज्ञानी को उपदेश।।21
अहंकार है इक तरफ ,एक तरफ अवसाद।
सत्ता और विपक्ष में शून्य रहा संवाद।।22
: जुमले फिर वाचाल के ,लोकलुभावन बोल ।
झोपड़ियों के मौन व्रत , आत्ममुग्धता ढोल।।23
: आयोजक ही बन गए , उद्घाटन सिरमौर ।
आज लिखा इतिहास कल ,विश्व करेगा गौर।।24
छोटे मुंह अब कर रहे , बड़ी बड़ी हर बात।
इतने नाजुक वक्त में , छल की बिछी बिसात।।25
नासमझी है मौन अब , और बड़ा अन्याय।
सम्मुख जब संकट बड़ा,जनता रही कराह।26
बकरों से बदतर हुए , मानव के हालात।
हर दिन की बकरीद से , जूझे उसके गात।।27
ऐसा भी क्या घर बना , दीवारों का शोर।
आने जाने के लिए , बचा न कोई छोर।।28
फुरसत का खेला नहीं इश्क विश्क या प्रेम।
है असीम बिन अंत का , रूहानी शुचि नेम।।29
झुलसाती है थकन दे , आग उगलती धूप।
मेहनतकश मजदूर का ,चेहरा हुआ कुरूप।।31
भले सियासत दे भुला , मजदूरों की बात।
पर अपने शुचि स्वेद से , सींचे भू दिन रात।।32
उजियारा तम बांटता , अरु पतझड़ मधुमास।
पाण्डे अब कैसे करें , अपनों पर विश्वास।।33
जोर,जुल्म ,अन्याय का ,आज चतुर्दिक राज।
फिर भी हम सब कह रहे , कितना सभ्य समाज।।34
ढोंगी ,पाखंडी चढ़े,व्यास पीठ पर आज ।
संरक्षण भरपूर फिर ,देता सभ्य समाज।।35
सबके चेहरे दिख रहा ,अनुत्तरित तनाव ।
भौतिकता की लपट से , अब तो झुलसे गांव।।36
मिट्टी में इस देश की ,है अद्भुत संदेश।
होता एक शहीद है , रोता पूरा देश।।37
आंगन आंगन उठ रहीं, अब असंख्य दीवार
रिश्ते अब रिसते नहीं ,भला करे करतार।।38
बरगद पीपल आम भी , नहीं दे रहे छांव।
सत्ता से अनुबंध कर ,चलते रहते दांव।।39
शिकवे ,गिले शिकायतें ,राय ,सलाह सुधार ।
इन सबका चिर मौन व्रत, लोकतंत्र लाचार।। 40
सहनशीलता शून्य कर , सत्ता मद में चूर ।
शिकवे गिले शिकायतें ,इन्हें नहीं मंजूर।।41
दागी अपराधी धनी , जब सत्ता के साथ ।
संभव नहीं अवाम का , कोई दीनानाथ।।42
शुचिता ,न्याय ,विकास के , बंद हुए सब द्वार ।
व्यक्तिवाद उद्दंड हो , करता निज जयकार।।43
रहती हो जिस देश में ,जनता नित हैरान ।
दुनिया में उस तंत्र का, रक्षक है भगवान।।44
पाण्डे जिस दिन हो गई ,खुद की खुद से बात ।
लोग सोचते जो रहें ,फर्क न पड़ता तात।।45
सर्व धर्म समभाव पर , जिस दिन होगा काम।
सुखी दिखेगी अहिल्या ,सुखी दिखेंगे राम।।46
छल बल की खेती यहां ,अरु नफरत के बीज।
परचम तानाशाह का , उपजाता नित खीज ।।47
मत दिखलाओ अब मुझे ,नफरत के बाजार ।
प्रेम पुजारी जन्म से ,प्यार मिरा व्यापार।।48
आज मदारी हैं अधिक , सेवक बस दो चार ।
चौकी बिकती जा रहीं , पर खुश चौकीदार ।।49
कोई कवि कैसे लिखे ,जब विकास की बात।
नीड़ नीड़ पर बाज जब ,मचा रहे उत्पात।।50
खुद से ही लड़ता रहा , खुद से किया न प्यार ।
खुद की इज्जत के बिना , खुद्दारी बेकार ।।51
दो जिस्मों की दास्तां, कभी नहीं है प्रेम।
रूहानी शुचि बंध का ,मात्र समर्पण नेम।।52
पाण्डे सच्चा प्यार ही , करे रूह स्पर्श ।
जिस्मानी कर्षण सदा , अल्पकाल संदर्श ।।53
ऐसी लादी बेरुखी , कैसे हो इंसान ।
लब पर खामोशी जमी ,भूल गए सम्मान।।54
ऊपर उठने को जरा , कितना गिरते लोग।
नजरो से गिरकर मगर ,उठने का क्या योग।।55
रायशुमारी की जगह ,तानाशाही बोल।
आत्ममुग्धता चरम पर, लोकतंत्र की झोल।।56