आग मज़हब की लगाते कहने को इंसान है
घर किसी के दो निवाले के लिए तूफ़ान है
हाल से उसके हुजूरे आला क्यों अंजान है
पत्थरों का ये शहर है जान ले तू भी इसे
सब ख़ुदा के भेष में लेकिन बड़े शैतान है
हाथ मेरे रेत आया मोतियाँ बिखरी रही
किस्मतों की बात है कोई नही नादान है
कौन आएगा यहाँ हर ओर इक सैलाब है
बख्श दे या कर फ़ना तेरे हवाले जान है
हैं सभी बन्दे ख़ुदा के कह रहे थे चीख कर
आग मजहब की लगाते कहने को इंसान है
शोर सुनते ही नही ऊँचे महलवाले कभी
फाड़ क्यों दीदे रहे उनकी अपनी पहचान है
ये मसीहा बन गए हैं दौलतों का ढेर है
ऐ खुदा तूने भला कैसे गढ़ा इंसान है
मार डाले ना मुझे ये तेरी ही खुद्दारियाँ
सोया मुद्दत से नही मौला मेरा ईमान है
– ‘अश्क़’