आगाज़
है धुआं सा कुछ यहां,
चिरागों को जलाते हैं,,
बदल दे कर लकीरों को,
कर खिलाफत जमाने से।
पकड़ ले बुलंदी की डोर हाथों में,
पंख कागजों की लगाके,,
नभ में खुद को उड़ाते हैं,
छा गया सहरसा अंधेरा है यहां।।
चल चिरागों को जलाते हैं,
बुझ गई है अब मशालें,,
रुकती सांसों से कुछ चिंगारी,
उधार लाते हैं,,
चल चिरागों को जलाते हैं।
चल चिरागों को जलाते हैं।।
~विवेक शाश्वत