आगाज़
है धुआं सा कुछ यहां,
चिरागों को जलाते हैं।
बदल दे कर लकीरों को,
कर खिलाफत जमाने से,,
पकड़ ले बुलंदी की डोर हाथों में,
पर कागजों के लगा के ।
नभ में खुद को उड़ाते हैं,
छा गया सजा अंधेरा फिर यहां,,
चल चिरागों को जलाते हैं,
बुझ गई है अब मशालें।।
रुकती सांसों से कुछ ,
चिंगारी उधार लाते हैं,,
चल,चिरागों को जलाते हैं।
चल,चिरागों को जलाते हैं।।
~विवेक शाश्वत ✍️