“आईना”
आपको मैंने अपनी आँखों में बसा रक्खा है,
छोड़िए उस आईने को उसमें क्या रक्खा है।
मिली है जिन्दगी तो जियो दरियादिली से,
मौत को गले लगाने में क्या रक्खा है।
सोने के फ्रेम में भी आईना झूठ बोलता नहीं,
शीशे को गुनहगार बताने में क्या रक्खा है।
ख्वाब का रिश्ता हकीकत से मत जोड़िए,
आईने को पत्थर से तोड़ने में क्या रक्खा है।
मेरी उम्मीदों के सरहद पार है घर तेरा,
फिर इन्तजार करने में क्या रक्खा है।
आईना खामोश रहा कि तुझमें क्या है ‘किशन’,
जमाने की सूरत दिखाने में क्या रक्खा है।
– डॉ. किशन टण्डन क्रान्ति
अमेरिकन एक्सीलेंट राइटर अवार्ड प्राप्त- 2023