अस्तित्व
कुछ साल पहले एक फिल्म आई थी,’अस्तित्व ‘।कुछ ऐसी हीं फिल्मों को ढूंढ-ढूंढ कर देखना शौक है मेरा।इस तरह की फिल्में स्त्रियों के कुछ अनछुए किरदार को उजागर करती हैं।
इसकी नायिका और नायक, दोनों बेहतरीन कलाकार हैं।तब्बू ने तो अभिनय की ऊँचाईयों को छुआ है।
कुछ अभिनेत्रियां ऐसी हैं जिन्हें अभिनय करने की आवश्यकता होती ही नहीं,अभिनय जैसे छलकता है उनके अंग-प्रत्यंग से।
यह फिल्म जहाँ और जैसे शुरू होती है,इसका अंत सटीक और सारगर्भित होता है।
स्त्री अपने अस्तित्व की लड़ाई पीढ़ियों से लड़ती चली आ रही है।उसने अपने जीवन का क्षण-क्षण अपने परिवार, बच्चों, जिम्मेदारियों को दिया होता है।वह इन सबमें अपने शौक, इच्छा,खुशियों को इस तरह भूल जाती है,जैसे एक कप चाय की प्याली में शक्कर, दूध और पानी अपना-अपना अस्तित्व भूल जाते हैं,,याद रह जाती है तो बस,, चाय।
नायिका अपने जीवन का एक लम्हा अपने लिए जीती है और वह उसके माथे पर कलंक की तरह छ्प जाता है।
चाहे जितने बरस,उसने अपनी जिम्मेदारियों को निभाते हुए बिता दिया मगर फिर भी अतीत के उस एक भूले हुए क्षण के लिए उसे क्षमादान नहीं मिलता और वो कटघरे में खड़ी कर दी जाती है।
सबसे दुःखद यह रहा कि उसका पति,श्री,जिसे उसने बेइंतहा प्यार दिया,उसका इतना ख़याल रखा कि उसने शोहरत की बुलंदी को छू लिया,उसी ने उसे,चार लोगों के सामने अपराधियों के समान खड़ा कर दिया और अपना स्पष्टीकरण देने को कहा,उन चार लोगों में एक वह भी था जिसे बिल्कुल नहीं होना चाहिए था–उसका बेटा।
नायिका गिड़गिड़ाती भी है,लेकिन वह नहीं मानता।उसका उद्देश्य नायिका का स्पष्टीकरण लेना नहीं था,बल्कि चंद लोगों की नज़रों में उसे गिराना था।
यह कैसा जीवन साथी जो अपने साथी के किसी एक राज़ का सहभागी नहीं बन सकता,बिना उसे प्रताड़ित किए।
अंततः जो निर्णय नायिका के द्वारा लिया गया,सराहनीय था।सही था कि उसने अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों को बखूबी निभा लिया था,अब केवल एक अस्तित्व की लड़ाई ही शेष है।
यह लड़ाई समस्त स्त्री जाति के लिए वांछनीय है,
धन्यवाद।