अल्पसंख्यक ‘गोरैया’
प्रतिवर्ष बीस मार्च को विश्व गोरैया दिवस के रूप में मनाई जाती है, परंतु जिनके लिए दिवस, वह प्राणी अल्पसंख्यक हो गए हैं ! गोरैया की एक युगल जोड़ी सप्ताह में एक दिन कहीं से उड़ मेरे आंगन आती हैं । मेरे यहाँ कबूतर है, सोचा– वे भी कहीं न कहीं घोंसले बनाकर टिक जाएंगी।
परंतु नहीं, वह कबूतर को दिए चावल के दाने चुन फुर्र उड़ जाती हैं, शायद हम मानवों से भय खाती हैं । कटिहार- मालदा रेलखंड पर कुमेदपुर रेलवे स्टेशन है, मैंने 2 साल पीछे देखा था, वहाँ हजारों की संख्या में गोरैये रह रहे हैं, शायद अभी भी हो ! हमें इस फुतकी गोरैये के संरक्षण की दरकार है । सरकार के आसरे पर नहीं, अपितु सामाजिक सरोकार को जगाकर ! इसके लिए महीन दाने खेत- पथारों में कुछ यूँ छोड़ देने चाहिए व छिटने चाहिए।
गोरैया में ‘गो’ शब्द का हिंदी अर्थ ‘जाना’ होता है, क्या यही हो गया ? तो हे ‘आरैया’ ! यानी ‘आ’ से आ जाओ, यहाँ मैं अकेला हो गया हूँ ! रे फुतकी गोरैया कहाँ चली गयी तू !