** अरुणोदय **
मेट स्याह रातों की कालिख रवि उदित होता देखो
कवि-हृदय- प्रकाश देखो रश्मिरथी सूरज को देखो
धीरे-धीरे आता है वह सागर के तट से उबर- उबर
कर किरणें फैलाता अपनी धरा-धरा अम्बर-अम्बर
अलस प्रकृति धीरे-धीरे उठ-उठ उर-आँचल-समेटे
ओंस बिंदुओं से मुख धोती आँखे मलती धीरे- धीरे
रातों को सोकर है जागी हुआ प्रातः अब धीरे- धीरे
मानव नित्य कर्म कर चलता कर्म-पथ पर धीरे धीरे
स्वस्थ-पान-पथ तीरे- 2 कुछ लोग टहलते धीरे-धीरे
सूरज आता लाता सुख-स्वास्थ्य लाभ सब धीरे-धीरे
बीजवपन काल है आया बरखा-हवा के संग – संग
सूर्य-किरण-धूप धरा बीज अंकुरित होता धीरे-धीरे
तेज-तपन बढ़ती रश्मिरथी क्षितिज से ऊपर आता
श्रांत-क्लांत मानव क्षुधा-तृसा-आकुल हो कर तब
तन-भूख-प्यास मिटा क्षणिक विश्राम करता मानव
फिर पुनः अपने कर्तव्य पथ पर बढ़ जाता है मानव
सूरज की तेज तपन से होती है धरा भी व्याकुल तब
घिर आते है मेघ सघन आतप दूर भगाने को तब तब
शीतल होती धरती माँ की छाती पा अमृत वर्षाजल
प्यासे पशु-पंक्षी अर मानव तब अपनी प्यास बुझते हैं सन्ध्या कुछ कम होता क़ातिल किरणों का आतंक
चलते पशु-पक्षी-मानव निज-घर को हो शिथिल अंग
फिर अवसान होता रवि-रश्मि का रवि-संग धीरे-धीरे
छुपता रश्मिरथी क्षितिज तले विश्राम पाने धीरे- धीरे
आता रश्मिरथी सागर-तीरे अरुणोदय होता धीरे धीरे।।
मधुप बैरागी