अभ्र सम अनुराग उर में ले बसा दृग में तुम्हारे !!
अभ्र सम अनुराग उर में ले बसा दृग में तुम्हारे,
सिंधु सम गहरे हृदय में चाहता रहना हमेशा|
कल्पनाओं में हमारे
प्रीति के हर प्रस्फुटन में,
एक तुम रहती रही हो
सत्य है यह मान लेना|
कह रहा हूँ मैं तुम्हें यह
बिन तुम्हारे शुन्य हूँ मैं,
मौनता को शब्द देकर
ही मुझे तुम जान लेना|
प्रेम की अभिलाष लेकर ही तुम्हारे द्वार आया,
तुम शिराओं में सदा अनुरक्ति बन बहना हमेशा|
अभ्र सम अनुराग उर में ले बसा दृग में तुम्हारे,
सिंधु सम गहरे हृदय में चाहता रहना हमेशा||
पंथ वाधा युक्त थे पर
मैं चला इसपर निरंतर,
मान कर उत्साह को तुम
नेह से सिंचित करोगी|
देख कर यह प्रेम मेरा
प्यास नेहिल जब जगेंगे,
था मुझे विश्वास निज पर
प्रीति अर्पित तुम करोगी|
मन करे मंदिर बनाकर मैं करूँ पूजा तुम्हारी,
चाहना जो भी हो हृदय की प्रेम से कहना हमेशा|
अभ्र सम अनुराग उर में ले बसा दृग में तुम्हारे,
सिंधु सम गहरे हृदय में चाहता रहना हमेशा||
प्रेम का पथ है कठिन पर
पग बढ़ा आगे बढ़ो तुम,
राह में कण्टक मिलेंगे
पर कहीं रूकना नहीं है|
लांछनों का दौर आये
मार्ग को अवरूद्ध करने,
थाम कर विश्वास का
दामन कहीं झुकना नहीं है|
है प्रणय नवनीत जैसा आस के दधि से जो निःसृत,
गर सुगंधित चाहते घृत चाह को महना हमेशा|
अभ्र सम अनुराग उर में ले बसा दृग में तुम्हारे,
सिंधु सम गहरे हृदय में चाहता रहना हमेशा||