अब मैं सिर्फ प्रेम पर लिखूंगा
मैंने समाजी-सियासी बुराइयां लिखना,
बंद कर लिया,
जाति धर्म ऊंच नीच अमीर गरीब के
लहू को एकसार बताना
निरा बंद कर दिया,
पहली जनवरी के ब्रह्ममुहूर्त से,
मैंने वो जनवादी कलम,
बंद कमरे में रख ली,
तथाकथित सुधारवादियों के
पसंद वाली वो ज्वलंत कविताएं,
फूंककर हवनकर खाककर
गंगा में बहा डाली
इसी पौष शुक्लपक्ष की सप्तमी को,
मैंने घर से दफ्तर तक आजकल,
प्रेम-काव्य की तख्ती लटका दी।
अब मैं सिर्फ प्रेम पर लिखूंगा,
प्रेम, कलिकाल के अनुरूप प्रेम
तीव्र प्रेम, छद्म प्रेम, रंगमंचीय प्रेम,
अब न उमड़ता है न मिलता है
मन से मन वाला गूढ़ प्रेम,
महज काया से काया लोलुप,
उन्मुक्त प्रेम लिखूंगा,
अस्थि-चर्ममय देह पर श्रृंगार लिखूंगा,
कौटिल्य चाणक्य विष्णुशर्मा का
‘वुभुक्षितः किं न करोति पापं’
वाला सटीक सिद्धांत अपनाऊंगा,
अब मैं युगानुसार सफल प्रेम करूंगा,
मर्यादाहीन-सिद्धांतहीन उन्मुक्त प्रेम,
सेमल फूलों के गुलदस्ते जैसा,
खिलता महकता भड़कता,
अतिरेक आकर्षक लुभावना प्रेम।
कर्म धर्म परहेजों से परे,
सुखद जीवन निर्वाह तय कर लिया
मैंने वेद गीता ग्रंथ पुराण तटस्थ किये,
‘यावत् जीवेत् सुखम् जीवेत्,
ट्टणं कृत्वा घृतं पिबेत्’,
ट्टषि चारवाक के सूत्र अपना लिए।
संघे शक्ति कलियुगे,
कलिकाले भ्रष्टमेव जयते
धनं सर्वोच्च सुखम्
सत्तामार्गं सर्वदा उचितम्,
अय्याश-जनो येन गतः स पंथाः
भिन्न-भिन्न अपभ्रंश बना डाले,
युगानुसार,सुविधानुसार
सुखी जीवन की नवल खोज में,
वेदों, शास्त्रें,ट्टचाओं की सूक्तियों को,
महर्षि व्यास की सिद्ध वाणी को,
ट्टषि-मुनियों के पुरातन ज्ञान को,
युगानुसार आत्मसात कर लिया,
अपने मुताबिक ढाल लिया,
पहली जनवरी के ब्रह्ममुहूर्त में,
सहसा मेरे ज्ञानचक्षु खुले,
मैंने समाजी-सियासी बुराइयां लिखना,
बिलकुल बंद कर लिया।
-✍श्रीधर.