अपमानित स्त्री
मुकाम मेरा सरेआम हैं।
गैरों से नहीं अपनों से बदनाम है ।
लज्जित हूँ, खण्डित हूँ ।
नारी स्वरूप बन
निज स्वांस आहें भरती हूँ।
घुट कर जीती हूँ ।
इतना सहन कि
घबराना भूल गये ।
होंठों पर खींची हँसी
तो चेहरों ने खामोशी ओढली ।
तनाव में आज कल प्राय: सभी जीते हैं।
एक हम से तुम बनकर
जीना ही भूल गयी ।
अपनी भीरूता ,महत्वहीनता कब छोड़ोगी ।
अंहकार नहीं दिखालाओ
पर अपनी हिम्मत कब जोड़ेगी।
_ डॉ. सीमा कुमारी ,बिहार (भागलपुर)
9-4-021 की मेरी स्वरचित कविता है जिसे आज प्रकाशित कर रही हूं।