अपनों से बढ़कर
“सारा घर उठाकर बहनों के यहां पहुंचा दो, इंसान पहले अपने बच्चों को देखता है यहां तो उल्टी गंगा बहती है। हे भगवान! ऐसा बाप किसी दुश्मन को भी मत देना।” घर में अक्सर होने वाले झगड़ों के बीच इस तरह के जुमले सुनाई देना आम बात थी। दरअसल, रोहित अपनी इकलौती जरूरतमंद बहन की मदद करता रहता था। उसकी बीवी मालती को यह बिल्कुल भी पसंद नहीं था।
एक दिन अचानक खबर आई कि मालती के मायके में आग लगने से भारी नुकसान हुआ है। चूंकि दौर पुराना था, कम्युनिकेशन इतना आसान नहीं था। बस यूं ही खबर मिल जाया करती थी। रोहित ने मालती से कहा कि मैं जाकर देखता हूं। मालती ने फटाफट तैयारी कर दी। खाना बनाकर दिया, साथ में दाल-चावल और जरूरत की कुछ चीजें बांध दी। राशन वाले थैले के अंदर चुपचाप कुछ रुपये भी रख दिए, जो उसने रोहित से छुपाकर और अपने खर्चों में कटौती से जमा किए थे।
मालती ने आठ साल के बेटे सोनू को भी साथ में भेज दिया। इस हिदायत के साथ कि नाना-नानी, मामा-मामी को परेशान नहीं करोगे, उनसे कोई चीज की मांग भी नहीं करना है। मालती की सोच यही थी कि अपनों से बढ़कर कुछ नहीं है। उसे संतोष था कि उसके रुपये जरूरत पर किसी अपने के ही काम आने वाले हैं।
तीन दिन बाद रोहित अपने बेटे सोनू के साथ घर वापस आए तो चिंता के भाव मालती के चेहरे से साफ नजर आ रहे थे। आते ही उसने सोनू से पूछा “नाना-नानी, मामा-मामी सब कैसे हैं?” “दरअसल, मम्मी जब हम लोग घर से बाहर निकले ही थे उसी समय खबर मिल गई थी कि नानी के घर नहीं, बल्कि बुआ की पशुशाला में लग आग गई थी। फिर हम लोग बुआ के घर चले गए… और हां उनके यहां सब ठीक है, कोई बड़ा नुकसान नहीं हुआ है।”
© अरशद रसूल