” अपनों की राह वो तकता है “
” अपनों की राह वो तकता है ”
——————————
एक छोटा सा नन्हा सा बालक
मां के पहलू से निकल कर,
इस धरती पर आता है
वो नादान निश्चल सा बच्चा ,
जमाने के साथ रूबरू जब होता है
ना जाने कहां खो जाती है उसकी,
वो चंचलता वो चपलता,
बस केवल एक अबोध प्रश्न सा,
उसके ज़हन में टकराता है
क्या यही वजह है उसके,
इस संसार में आने की या
मंतव्य और कोई है
उसके जहां में आने का या
कुछ और ही सोच रखा है
बनाने वाले ने उस अबोध की खातिर।
इसी ऊहापोह में उलझा सा
वो जगत यात्रा करता है,
दिन रात गलाता है स्वयं को
तकलीफ़ स्वयं वो झेलता है,
बचपन कब पीछे छूट जाता है
ये वो जान ही नहीं पाता,
जवानी की दहलीज पर आकर
प्रतिस्पर्धा को झेलता है,
एक ऐसी अंधी दौड़ में
अपने आप को खड़ा पाता है,
कब जवानी जाती है बीत
और बुढ़ापा लेता है घेर,
इल्म इस बात का उसको
होने ही नहीं पाता है,
जीवन भर की उसकी मेहनत का
सिला उसे क्या मिल पाता है?
जीवन की संध्या बेला में
जब वो पलट कर देखता है,
ना जाने क्या सोच कर आंखे
बरबस ही नम हो जाती हैं,
क्या इसी सब के खातिर
उसने इतना सब कुछ सहन किया ?
क्यूं दिन रात तपाया खुद को
क्यूं पल भर भी ना चैन लिया?
क्यूं अपनों की खातिर उसने
वार दिए सपने सारे ,
क्यूं परिवार की खुशियों पर
होम किया जीवन अपना सारा?
क्यूं आज नहीं कोई भी उसका
जो हाथ पकड़ दे उसे सहारा ?
क्या खता हुई उस बालक से
ये आज तलक ना जान सका,
वृद्धाश्रम के कोने पड़ी खाट को
ना अब तक वो बिसरा ही सका,
नन्हा बालक वो नन्हा बच्चा
जोह रहा है बाट अभी तक,
कब आएंगे उसके अपने
कब उसके दिन फिर जाएंगे,
सफेद झूठ सी आशा लेकर
वो फिर सपने बुनता है,
जीवन की इस सांझ की बेला में वो
अपनों की राह वो तकता है…
अपनों की राह वो तकता है…
संजय श्रीवास्तव
बालाघाट ( मध्य प्रदेश)