अपने
जिन्हें हम अपना समझते हैं ,
वो अपने नही निकलते हैं ,
कुछ गैर भी वक्त आने पर
अपनों से ऊपर निकलते हैं ,
अपनेपन के भरम में हम जिनका साथ निभाते हैं ,
वो ही अपने मुश्किल में हमारे काम नहीं आते हैं ,
इक तरफा एहसास
हमें मजबूर करता है ,
अपनों की फ़ितरत का असर
हमें मा’ज़ूर करता है ,
फिर भी ना जाने क्यों हम रस्म- ओ – राह
निभाए जाते हैं ,
हर बार चोट खाकर भी बग़ावत
नहीं कर पाते हैं ।