अपने घर आंगन नहीं गए
अपने घर आंगन गए हमें तो जमाने हो गए
कंकड़ के शहर के जब से हम दीवाने हो गए
कच्चे रास्तों में अब भी उड़ती होगी क्या धूल
धूल में लिपटे अपने बचपन को लाने नहीं गए
वहीं कहीं है कच्चे घरों से थोड़ी ही दूर थे बगीचे
मिट्टी की सौंधी खुशबू से महुआ उठाने नहीं गए
कोयल की बोली महुआ पगली सी जो होली
सुर ओर सुगन्ध को गले लगाने हम नहीं गए
उठते रहे कदम उठ के लौटते रहे ठिकाने तलक
जमाने हुए हम बगीचे में आम चुराने नहीं गए
~ सिद्धार्थ