अपनी ग़ज़लों को,,
अपनी ग़ज़लों को रिसालों से अलग रखता हूँ,
यानी ये फूल ,किताबों से अलग रखता हूँ,
हाँ बुज़ुर्गों से अकीदत तो मुझे है लेकिन,
मुश्किलें अपनी, मज़ारों से अलग रखता हूँ,
मंज़िलें आ के मेरे पाँव में गिर जाती हैं,
होंसला जब,में थकानों से अलग रखता हूँ,
उनकी आमद का पता देती है खुशबु उनकी,
उस घडी खुद को जहानों से अलग रखता हूँ,
होश वाले मुझे अपनों में गिना करते हैं,
में कहाँ खुद को दिवानो से अलग रखता हूँ,
मुझको अच्छा नहीं लगता ये उमीदें टूटें,
इस लिए तीर कमानों से अलग रखता हूँ
——–अशफ़ाक़ रशीद..