अनजाना भय
अनजाना भय
गर्भ के नौवें महिना होने को है और उसका मन न चाहते हुए भी एक अनजाने दर्द और चिंता से घिरा है, कल रात ही सासु माँ ने पवित्र धागा मेज पर रखा और जाते वक्त बोलते गयी “बहु चिंता मत करो बहुत पहुँचे हुए पंडित से मांग कर लाई हूँ ये धागा। भगवान ने चाहा तो इस बार हम निराश नहीं होगें। ”
वह जानती है इस घर में उसकी इच्छा या उसकी मान की कोई जगह नहीं वो तो बस कुल बढ़ाने का जरिया मात्र है जरूरत पड़ी तो ये लोग उसे इस जगह से हटा कर किसी और को लाने मे भी नहीं हिचकेगें।
खिड़की के पास ही लाली उसकी गाय भी बंधी है और वह पहली बार बियाई हुई है । वह बार बार उसकी तरफ देख कर जोर से आवाज निकाल रही है जैसे कुछ कहना चाह रही है।वह सोच रही है कि यह
कैसी परिस्थिति है एक तरफ मेरे लिए कोई भी स्त्रीधन की कामना नहीं कर रहें वहीं लाली से एक बछड़ी की आश लगाए बैठे है । मनुष्य और जानवर की भावनाओं और उनके मातृत्व का उनके फायदे के आगे कोई मोल नहीं।
उसने लाली की आखों में भी न जाने क्या देखा कि वह उठ कर बाहर आई और उस लाल धागा को तोड़ आधी खुद को और आधी लाली के गले में बांध दिया ।
जैसे वो दोनों बंधे हो एक ही दर्द के रिश्ते से।
शुभ्रा झा दरभंगा बिहार