अनंत रहस्य की छाती पर
अपनी ही आवाज मुझे गूँजती मिली
अपने ही स्वप्न मुझे सोते मिले
शब्द कहीं रेगिस्थानी घाटी के पत्थरों पर
भटकते दिखे
इस अनंत रहस्य की छाती पर
मुझे अपनी ही जिन्दगी के,
रहस्य न मिल सके।
किसे आवाज दूँ मैं
कहाँ अपने आप को तलाशूँ
अभी तो न जाने कितना लम्बा सफर है
मुखर कहीं से ओ मेरे स्वर
कहीं तो मुझे अपनी कराह मिले।
पल पल के परिवर्तन ने डराया है
भय क्रोध आकांक्षाओं ने मुझे हराया है
हाय,
अपने ही मानस पुष्प् में मुझे
पराग कण सिमटे न मिले।
कौन बिछड़ गया न जाने
किसे मुझे ढूँढना है
और न जाने इस विराट शून्य में
क्या क्या पाकर खो जाना है
किससे यह सब पूछूँ मैं
मुझे हर कली नोंचती मिली
अपनी ही आवाज मुझे गूँजती मिली।
-✍श्रीधर.