अधूरी कविता
उसके कदमों पे गिर जाता
इतना भी मै मज़बूर न था
चाहता था बहुत उसे पर
मेरे दिल को ये मंज़ूर ना था
वफ़ा के बदले मिलती वफ़ा
यह ज़माने का दस्तूर न था
कल प्यार का मौसम था और
आज भी चाहत के मेले है
हम कल भी अकेले थे
और आज भी अकेले है
समझा ही नही उसने तो क्या
गम जी लेंगे जैसे जीते आए हैं
हमने सीने पर वार सहे
दिल पर ज़ख्म खाए हैं
सारे अरमान बेच डाले
फिर भी हार के आए हैं
उसे बस साथ चाहिए था प्यार नहीं
अच्छा हुआ टूट गया दिल
अब किसी का इन्तज़ार नहीं
मैं समझ पाता उसको
इतना भी समझदार ना था
उसकी चाहत एक ज़रुरत थी
उसका प्यार प्यार ना था ।