“अतिशय रगड़ करे जो कोई अनल प्रकट चन्दन से होई”
डॉ लक्ष्मण झा “परिमल ”
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राष्ट्रकवि श्री रामधारी सिंह “दिनकर ” की पंक्ति उनके खंडकाव्य “कुरुक्षेत्र ” में कही गई हैं ! इसे लाखों संदर्भ में कहा जाता हैं ! इसका अर्थ यह है कि
“ज्यादा रगड़ने से चन्दन से भी अग्नि प्रज्ज्वलित हो जाती है”! अब यहाँ हम कुछ नये मित्रों कि बात कर लें ! व्याहवारिकता में हम अधिकांश मित्रों को जान नहीं पाते ! अधूरे प्रोफ़ाइल की सूचना अंधकारों में भटकने जैसा हो जाता है ! फिर भी उनकी तस्वीर ,उनकी लिखाबट, उनके दोस्तों की सूची ,कुछ हद तक उनके विचार और अभिरुचि का अंदाजा उनके फेसबूक के पन्नों में दिख ही जाते हैं ! बस किन्हीं -किन्हीं की भंगिमाओं को देखकर अफसोस होने लगता है ! मित्र की सूची में आये ना कोई पत्राचार ना कोई आभार बस चले रगड़ने ! मेस्सेंजर पर लगातार मांगी हुयी उधार की तस्वीरें ,तरह -तरह के विडियो ,HI इत्यादि भेज कर रगड़ना प्रारम्भ कर देते हैं ! फिर लगातार नोटिफ़िकेशन पर किसी ग्रुप के साथ जुडने का असाध्य घर्षण प्रकट होने लगता है ! भला यह वो कैसे समझ लेते हैं कि हमारी रुचि ये सारी विधाएँ में हैं ? लाख अनुरोध के बाबजूद हृदय पर प्रहार करना नहीं छोडते हैं ! इन अतिशय रगड़ को भला कौन झेल सकता हैं ! फलस्वरूप ब्रितृष्णा की ज्वाला इस अतिशय रगड़ से इस तरह धधक उठती है जिसे शांत करने के लिए हमें कोप भवन में अनंत काल के लिए चला जाना पड़ता है ! डिजिटल मित्रता में तनिक भी विभेद आ जाय तो पलक झपकते मित्रता खत्म हो जाती है और फिर शायद ही पुनः जुड़ पाती है ! हम यदि सजग ,शिष्टाचार ,मृदुलता के परिधिओं में रहकर सबको सम्मान करेंगे तो डिजिटल मित्रता का स्वरूप दिव्य हो जाएगा !
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डॉ लक्ष्मण झा “परिमल ”
दुमका