अछूत का इनार / मुसाफ़िर बैठा
जब धनुखी हलवाई का इनार था
केवल टोले में और
सिर्फ और सिर्फ इनार था
पीने के पानी का इकलौता स्रोत
तो दादी उसी इनार से
पानी लाया करती थी
और धोबी घर की बाकी औरतें भी
और घरों की जनानियां भी
पानी भरती थीं वहां
पर धोबनियों से सुविधाजनक छूत
बरता करती थीं
ये गैर धोबी गैर दलित शूद्र स्त्रियां
जबकि खुद भी अस्पृश्य जात थीं ये
सवर्णों के चैखटे में
अलबत्ता उनके बदन पर
जो धवल साड़ी लिपटी होती थीं
उनमें धोबीघर से धुलकर भी
रत्तीभर छूत नहीं चिपकती थी
पर इन गैर सवर्ण स्पृश्यों की
बाल्टी की उगहन के साथ
नहीं गिर सकती थी
धोबनियों की बाल्टी की डोर
साथ भरे पानी को
छूत जो लग जाती
जाने कैसे
संग साथ रहे पानी का
अलग अलग डोर से
बंधकर खिंच आने पर
जात स्वभाव बदल जाता था
(2)
अभावों से ताजिन्दगी जंग लड़ती
आई दादी के अहं को
गहरे छुआ था कहीं
बस इत्ती सी बात ने
इसी सब बात ने
दादा को अपनी भरी जवानी में खो देने वाली
दादा के संग साथ के बहुतेरे सपनों को
दूर तलक न सहला पाने वाली दादी ने
धोबी घाट पर घंटों
अपने पसीने बहा बहा कर
कपड़ा धोने के पुश्तैनी धंधे से
(जो कि जीवनयापन का एकमात्र
पारिवारिक कामचलाऊ जरिया था)
कुछ कुछ करके पाई पाई जोड़कर
बड़े जतन से अलग कर रखा था
अपने दरवाजे पर
एक इनार बनवाने की खातिर
और इस पेटकाट धन से
लगवाया था अपना ईंटभट्ठा
क्योंकि बाजू के गांव के सोनफी मिसिर ने
अपनी चिमनी से ईंट देने से
साफ इंकार कर दिया था
ताकि एक अछूत का
आत्मसम्मान समृद्ध न हो सके कभी
और हत सम्मान करने की
सामंती-ब्राह्मणी परंपरा बनी रहे अक्षुण्ण
(3)
यह इनार ऐसा वैसा नहीं था
दलित आत्मसम्मान आत्माभिमान का
एक अछूता रूपक बन गया था यह
इनार की जगत पर हमारे दादा का नाम
नागा बैठा खुदवाया और
खुद रह गयीं नेपथ्य में
कि औरत होकर अपना नाम
सरेआम कैसे करतीं दादी
कि कितनी परंपराएं अकेले तोड़तीं दादी
(4)
भी दादी की परिपक्व उम्र में पहुंची मां
कहा करतीं हैं कि
दादी के इनार की बरकत के कल्पित किस्से
इस कदर फैले गांव जवार में
कि इस पानी के
रोगहर प्रताप के लाभ लोभ में
गांव के दूर दराज टोले
यहां तक कि
आस परोस के गांव कस्बों से भी
खिंचे चले आते थे लोगबाग
घेघा रोग चर्मरोग और
और बहुत सी उदर व्याधियों का
सहज चामत्कारिक इलाज पाने को
संभव है
वह आज की तरह का
सर्वभक्षी मीडिया संक्रामक युग होता
तो दादी के इस प्रतापी इनार के
सच और दादी के यश से बेसी
जनकल्पित गढ़ंत किस्से ही
अंधप्रसाद भोगियों के दिल दिमाग पर
खूब खूब मादकतापूर्वक
दिनों तक राज करते होते
(5)
सोचता हूं बरबस यह
कि इस इनार से
अपने उद्घाटक हाथों से
पूरे समाज की गवाही-बीच
जब भरा होगा पहली दफा
दादी ने सर्जक उत्साह से पानी
और चखा होगा उसका विजयोन्मादी स्वाद
तो कितना अनिर्वचनीय सुख तोष मिला होगा
दादी की जिह्वा की उन स्वादग्रंथियों को
जो बारंबार जले थे
धनुखी हलवाई के इनार का
पी मजबूर पानी
और अब आत्मसम्मान खुदवजूद की
मिठास के परिपाक की कैसी महक
तुरत तुरत मिल रही होगी इसमें दादी को
(6)
इस अनूठे इनार के पानी का स्वाद
उस वक्त कितना गुनित फलित हो गया होगा
जब शूद्र हलवाइयों का सवर्णी अहं
दादी के अछूत पानी का
पहला घूंट निगलते ही
भरभरा कर गिर गया होगा
(7)
अब इस इनार के
रोगहर प्रताप की बाबत जब
पुरा-मन हलवाइयों को
अपना अहं इनार छोड़
दादी के अछूत इनार में
दलितों के संग संग
अपनी बाल्टी की डोर
उतारनी खींचनी पड़ती होगी
तो इससे बंधकर आए जल का आस्वाद
कितना अलग अलग होता होगा
दादी जैसों के लिए
और उन पानी पानी हुए
हलवाइयों के लिए
(8)
चापाकल के इस जमाने में
अब अवशेष भर रह गया है इनार
दादी के इस आत्मरक्षक इनार का भी
न कोई रहा पूछनहार देखनहार
कब से सूखा पेट इसका
भर गया है अब
अनुपयोगी खर पतवार झाड़न बुहारन से
कुछ भी रहा नहीं अब शेष
दादा दादी की काया समेत
निःशेष है तो बस
इनार की जगत पर खुदा दादा का नाम
और उसके जरिए याद आता
दादी का पूंजीभूत क्रांतिदर्शी यश काम।
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