मैं मगर अपनी जिंदगी को, ऐसे जीता रहा
शम्स' गर्दिश जो यूं ही करता है।
छलावा बन गई दुल्हन की किसी की
You have to keep pushing yourself and nobody gonna do it for
बाण मां री महिमां
जितेन्द्र गहलोत धुम्बड़िया
*यार के पैर जहाँ पर वहाँ जन्नत है*
लघुकथा कौमुदी ( समीक्षा )
कई बचपन की साँसें - बंद है गुब्बारों में
हमारे बुज़ुर्ग अनमोल हैं ,
काश जज्बात को लिखने का हुनर किसी को आता।
भावुक हुए बहुत दिन हो गये..
दोपहर जल रही है सड़कों पर