■ त्वरित टिप्पणी / बेपरवाह ई-मीडिया
#त्वरित_टिप्पणी-
■ शब्द प्रयोग और बेपरवाह ई-मीडिया
◆ अब तय हों भूमिका की हदें
【प्रणय प्रभात】
“शब्द ब्रह्म होते हैं, जिनका नाद कालजयी होता है।” टिल को ताड़ और राई को पहाड़ बनाने की सामर्थ्य भी शब्द ही रखते हैं। विडम्बना की बात है कि इस सच्चाई से निरंकुश इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पूरी तरह अनभिज्ञ है। उसे इस बात की भी कोई परवाह नहीं कि उसके द्वारा प्रयुक्त शब्द किस हद तक अनुपयुक्त हो सकते हैं। प्रसंग में है हृदय प्रदेश की संस्कारधानी “जबलपुर” की एक आपराधिक घटना और उसे लेकर की गई रिपोर्टिंग। जिसमे समाचार चैनल के रिपोर्टर और एंकर ने आरोपी के लिए बिना सोचे-विचार “मानसिक विक्षिप्त” शब्द का कई बार उपयोग किया। देश के इस वैधानिक सच को भुलाते हुए कि “मानसिक विक्षित” को जघन्य अपराध का भी दंड नहीं मिलता। यह एक ऐसा शब्द है, जिसका प्रयोग बचाव पक्ष द्वारा किए जाने का मुल्क़ में प्रचलन है। एक रिसोर्ट में अपनी प्रेमिका को मौत के घाट उतारने और इस वारदात का वीडियो वायरल करने वाले बेरहम हत्यारे को उन्मादी के बजाय विक्षिप्त बताना वस्तुतः एंकर और रिपोर्टर का अपना “मानसिक दिवालियापन” है। जिसने एक अपराधी को बचाव के लिए एक सर्टीफिकेट देने का अपराध जाने-अंजाने कर दिया है। कोई अचरज नहीं होना चाहिए, यदि काले कोट इस एक शब्द की बिना पर अदालत को गुमराह करने में कामयाब हो जाएं। हाल ही में सज़ा-ए-मौत पाए तीन दरिंदों की रिहाई के एक मामले ने न्याय की बुनियाद को हिलाने का काम पहले ही कर दिखाया है। ऐसे में एक और जघन्य मामले को हल्काने का यह मीडियाई प्रयास किसी भी नज़रिए से स्वीकार जाने योग्य नहीं। सड़क पर खड़े होकर वकील, विवेचक और न्यायाधीश की भूमिका एक साथ निभाने वाली चैनली मीडिया को अपनी हदें अब समझनी होंगी। ताकि छोटी-बड़ी अदालतों में चलने वाली न्यायिक प्रक्रिया दिग्भ्रमित न हो। अपराध और अपराधी उतावलेपन में हुई ऐसी भूलों से कवच-कुंडल न पाए और इंसाफ़ की लड़ाई का पटाक्षेप नाइंसाफी की दुखांतिका के साथ न हो। शब्द प्रयोग को लेकर बेपरवाह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की ऐसी चेष्टाओं के विरुद्ध समयोचित प्रावधान भी बेहद ज़रूरी हैं, ताकि रिपोर्टर का काम केवल रिपोर्टिंग ही हो। धारणाओं का प्रजनन नहीं।