■ गीत / कहाँ अब गाँव रहे हैं गाँव?
#गीत
कहाँ अब गाँव रहे हैं गाँव?
【प्रणय प्रभात】
कड़ी धूप है शहर सरीखी,
नहीं बची है छाँव।
कहाँ अब गाँव रहे हैं गाँव?
कहाँ अब गाँव रहे हैं गाँव??
● ना पाटोर नहीं खपरेलें,
ना आँगन चौबारे।
मिट्टी के सौंधेपन वाले,
बचे नहीं घर-द्वारे।
लुप्त हो गए कुए-बावड़ी,
बाक़ी रहे न पनघट।
पता नहीं क्यों सुखद समय ने,
ली है ऐसी करवट।
पगडंडी बन गई खरंजा,
दहक जलाती पाँव।कहाँ अब गाँव रहे हैं गाँव?
कहाँ अब गाँव रहे हैं गाँव??
● भोलेपन ने ओढ़ी चादर,
छल, मद और कपट की।
चमक-दमक ने बिसरा सी दी,
मीठे जल की मटकी।
पंछी, पेड़, धरम के स्थल,
घायल सी अमराई।
राजनीति ने पग-पग देखो,
खोद रखी है खाई।
सुख-दुःख वाली चौपालों में,
शकुनी वाले दाँव।
कहाँ अब गाँव रहे हैं गाँव?
कहाँ अब गाँव रहे हैं गाँव??
● हफ्ते-पखवाड़े की हाटें,
लील गई चौपाटी।
खान-पान परिधानों के संग,
बदल गई परिपाटी।
मोर नाचना भूल गए हैं,
गौएँ नहीं रंभातीं।
हल के साथ बैल की जोड़ी,
नज़र कहाँ अब आतीं?
कोयल के सुर पर हावी है,
कागों वाली काँव।
कहाँ अब गाँव रहे हैं गाँव?
कहाँ अब गाँव रहे हैं गाँव??