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15 Jul 2016 · 1 min read

ग़ज़ल (लाचारी )

ग़ज़ल (लाचारी )

कुछ इस तरह से हमने अपनी जिंदगी गुजारी है
जीने की तमन्ना है न मौत हमको प्यारी है

लाचारी का दामन आज हमने थाम रक्खा है
उनसे किस तरह कह दें की उनकी सूरत प्यारी है

निगाहों में बसी सूरत फिर उनको क्यों तलाशे है
ना जाने ऐसा क्यों होता और कैसी बेकरारी है

बादल बेरुखी के दिखने पर भी क्यों मुहब्बत में
हमको ऐसा क्यों लगता की उनसे अपनी यारी है

परायी लगती दुनिया में गम अपने ही लगते हैं
आई अब मुहब्बत में सजा पाने की बारी है

ये सांसे ,जिंदगी और दिल सब कुछ तो पराया है
ब्याकुल अब मदन ये है की होती क्यों उधारी है

ग़ज़ल (लाचारी )
मदन मोहन सक्सेना

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