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8 Jul 2016 · 1 min read

ग़ज़ल (ये कैसा तंत्र)

ग़ज़ल (ये कैसा तंत्र)

कैसी सोच अपनी है किधर हम जा रहें यारों
गर कोई देखना चाहें बतन मेरे वह आ जाये

तिजोरी में भरा धन है मुरझाया सा बचपन है
ग़रीबी भुखमरी में क्यों जीबन बीतता जाये

ना करने का ही ज़ज्बा है ना बातों में ही दम दीखता
हर एक दल में सत्ता की जुगलबंदी नजर आये

कभी बाटाँ धर्म ने है ,कभी जाति में खोते हम
हमारे रह्नुमाओं का, असर हम पर नजर आये

ना खाने को ना पीने को ,ना दो पल चैन जीने को
ये कैसा तंत्र है यारों , ये जल्दी से गुजर जाये

ग़ज़ल (ये कैसा तंत्र)
मदन मोहन सक्सेना

265 Views
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