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3 Aug 2022 · 1 min read

हलाहल दे दो इंतकाल के

दर्द है पता नहीं, ये क्या हैं !
वेदना तो कठोर है, तीखा है
न जाने ये ठहरेंगे, चले जाएंगे
कह दो अश्रुण्ण हूँ, नहीं टूटेंगे

इतिवृत्त देखो ज़रा बन्धु, क्या मिला ?
अश्रु कहीं निकलते कहीं अय्याशी है
पता नहीं विस्मय हूँ, ये आखिर क्या है
ऊंच-नीच के भेद ये अंतर्वती भीतर में
रहती करती हृदय को क्षतविक्षत निविड़

हलाहल है नीर नहीं, दे दो इंतकाल मेरे
इंतकाम नहीं हूँ, बस ठसक ही कसक है
ये मेले है किस तस्वीर के, सजाने चले महफ़िल
ये तो तवायफ़ का खेल है, न जानें कौन है और कसर
सींच-सींच के सिर्फ ठठरी बची, हुई द्वन्द्व किसके
रोक लो कोई इसे, सौन्दर्य-ईहा-कशिश-यौवन से
मुँह फेर लो इससे बस यहीं कहना था, सुन लो न ज़रा
नोंच-नोंच अवलुंठन कर अवगुंठन नहीं मैं, कीस-कुच ज्वलन में

Language: Hindi
Tag: कविता
224 Views
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