स्वप्न पखेरू

कुछ सपने कैद थे कब से मेरे सीने में
आज उन सबको रिहा कर दिया ।
समय की विभीषका में
अनावृष्टि से शुष्क भूमि
पोषणार्थ अन्न न उपजा सकी ।
भूख प्यास से व्याकुल हो
वो फड़फड़ा रहे थे
बस यही सोंचकर कि
मेरे आंगन यदि इनकी मृत्यु हुई
तो मैं बर्दाश्त न कर पाऊँगी
उड़ा दिए मन के स्वप्न पखेरू ।
भीतर सब सूना हो गया किन्तु
मैंने सहेज ली
मेरे आंगन की निष्कलंकता |