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1 Oct 2016 · 1 min read

सदियों सज़ा मिली

शादाब मौसमों की जो रंगीं फ़िज़ा मिली
गुलशन में झूमती हुई बाद-ए-सबा मिली
गुजरा हूँ मैं चमन से तो ऐसा लगा मुझे
कलियों को मुस्कुराने की तुझसे अदा मिली
इस दौर में शराफत-ए-इंसां कहाँ रही
अहद-ए-वफ़ा की जिससे उसी से जफ़ा मिली
दर से ख़ुदी में जब भी उठे है मेरे क़दम
हर मोड़ पे हिदायत-ए-मुश्किल कुशा मिली
दीवार क्या उठाई बुज़ुर्गों ने सेहन में
आपस में लड़ते रहने की सदियों सज़ा मिली
ग़ाज़ी मेरे दिए को बुझाने के वास्ते
तेवर बदल बदल के मुख़ालिफ़ हवा मिली

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