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23 Apr 2020 · 8 min read

शीर्षक–”हॉस्‍टल-जीवन से बेटी बनी आत्‍मनिर्भर”

शुरू से माता-पिता संग रही शिल्‍पा, उसने तो सोचा ही नहीं था कि 12वीं की परीक्षा में विज्ञान के संपूर्ण विषयों के साथ अच्‍छे मार्क्‍स के साथ उत्‍तीर्ण करने के उपरांत भी, उसे उसके मनचाहे विषयों में बी।टेक। भोपाल में ही रहकर करने के लिये किसी भी कॉलेज में प्रवेश नहीं मिल पायेगा। इस कारण उसने दो-चार दूसरी जगह भी आवेदन फॉर्म भरे थे, जिनमें ऑनलाईन ही परीक्षाएँ होना निश्चित थीं। पुणे में उस समय डी।वाय।पाटील कॉलेज बहुत प्रसिद्ध था, क्‍योंकि वहाँ सभी विषयों के कोर्सेस करने की सुविधाएँ थीं और साथ ही हॉस्‍टल की भी।

इसी बीच उसकी माँ संगीता के पेट की सर्जरी हुई ही थी कि शिल्‍पा को डी.वाय.पाटील कॉलेज में सम्बंधित विषय में प्रवेश हेतु चयनित कर लिया गया और मात्र एक हफ्ते के भीतर प्रवेश निश्चित कर हाज़िरी देनी ज़रूरी थी, जबकि संगीता के टांके तक नहीं कटे थे और अस्‍पताल से डिस्‍चार्ज मिला ही था। “इस स्थिति में शिल्‍पा अपने मन को घर से बाहर रहकर अध्‍ययन करने के लिए तैयार भी नहीं कर पाई थी कि कुछ और रास्‍ता नहीं बचने के कारण उसे मजबूरन पुणे जाना पड़ा।”

शिल्‍पा का छोटा भाई रूधिर जो 10वीं कक्षा में पढ़ रहा था, उसे इतनी समझ भी नहीं थी कि संगीता को थोड़ा सहारा दे और दादी भी साथ ही रहती थी। “कभी-कभी ऐसा वक्‍त आ जाता है कि न चाहते हुए भी घर से बाहर पढ़ने जाना ही पड़ता है।” शिल्‍पा को रवि ने प्‍यार-दुलार से समझाया कि कैरियर का सवाल है बेटी, तू बेफिक्र होकर जा। यहाँ की चिंता ना कर मैं और रूधिर संभाल लेंगे। थोड़े दिनों में माँ ठीक भी हो जाएगी और ऑफिस भी जाने लगेगी।

शिल्‍पा को थोड़ा सोच-विचार का ज़रा भी समय नहीं मिला, उसका एक मन बोल रहा अरे बेचारी माँ के समीप कोई नहीं है, उसने इतने सालों से घर-परिवार में हमारी देखभाल के साथ सबके लिए अपनी सेवाएँ दीं, साथ में नौकरी भी की और आज जब उसकी सेवा करने का मौका आया तो मेरा कैरियर आड़े आ रहा है। वह ऐसी-वैसी सर्जरी नहीं हुई न माँ की हर्निया की चौथी नाज़ुक सर्जरी थी। … और फिर ऑफीस कैसे जा पाएगी वो? दूसरा मन विचारमग्‍न होकर मानों कह रहा हो, ब्रेक लिया मान लो इस साल फिर अगले साल भी इधर प्रवेश नहीं मिला तो? साल भी बरबाद हो जाएगा… अभी कैरियर का सवाल है और फिर प्रवेश तो मिल रहा है पुणे में। रहा पापा-मम्‍मी संग रहने का सुख से वंचित रह जाऊँगी कैसे रहूँगी मैं उनके व रूधिर के बगैर? काश…भोपाल के ही किसी कॉलेज में प्रवेश ले लेती, पर भविष्‍य में नौकरी या रिसर्च के लिये किसी रेपुटेड़ कॉलेज से सम्बंधित कोर्स की डिग्री लेना ज़रूरी है, सो जाना ही ठीक है। “कभी न कभी तो अकेले रहने की नौबत आना ही है और फिर वहाँ हॉस्‍टल की सुविधा तो है ना?” आदत करनी पड़ेगी, यहाँ तो मम्‍मी-पापा हैं वहाँ तो सभी अकेले ही प्रबंध करना होगा। इस तरह से अच्‍छी तरह सोच-विचार करने के बाद आखिर में हॉस्‍टल की ज़िंदगी को स्‍वीकार करते हुए पुणे में डी.वाय.पाटील में ही अध्‍ययन करने का निर्णय ले ही लिया।

अब इधर रूधिर की भी उच्‍चस्‍तरीय पढ़ाई ज़ोरों पर थी। स्‍कूल के पश्‍चात उसे कोचिंग जाने के साथ ही माँ और दादी का भी ध्‍यान रखना भी उतना ही आवश्‍यक था। पापा को कभी-कभी ड्यूटी से आते समय देरी होती, इन सब परिस्थितियों के साथ ही संगीता इस कोशिश में थी कि शीघ्र ही स्‍वास्‍थ्‍य-लाभ हो तो वह ऑफिस जा सके। बेटी की कॉलेज की फीस, हॉस्‍टल का खर्चा एवं रूधिर की पढ़ाई का खर्चा भी घर-परिवार के अन्‍य खर्चों के साथ अकेले रवि के लिए वहन करना इतना आसान नहीं था।

पहली बार ही घर से बाहर अध्‍ययन के लिये निकली शिल्‍पा को रेल्‍वे का कन्‍फर्म रिजर्वेशन न मिलने के कारण बस से ही भोपाल से पुणे तक का सफर अकेले ही तय करना पड़ा। घर से निकलते समय बहुत रोई वो! न जाने आँसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे। माँ को ऐसी हालत में छोड़कर जाने का दिल ही नहीं कर रहा था उसका।

वैसे मालूम सब था उसे, प्रवेश की प्रक्रिया पूर्ण करने के लिये पहले वह पापा के साथ जाकर आई थी। अभी तो सभी विद्यार्थियों के परिचय होने के साथ ही नियमित क्‍लासेस शुरू होने वाली थी।

जैसे ही शिल्‍पा ने हॉस्‍टल में प्रवेश किया, वहाँ वार्डन ने पहले ही दिन सब नियम समझा दिये और उसके विषय की 10 साथीदार वहाँ रहने आई थीं। अब उनमें से कुछ ने अपने-अपने साथीदार पहले से ही चुन लिये थे, बची एक वृंदा सो दोनों को साथीदार बनना स्‍वीकार करना पड़ा।

दूसरे दिन से कॉलेज शुरू होने वाला था, हॉस्‍टल से सब चाय-नाश्‍ता कर परिचय के समय पर पहुँची। डी.वाय.पाटील कालेज के डीन (संकायाध्‍यक्ष) महोदय ने सबका परिचय कराना प्रारंभ किया तो सभी लड़कियाँ अपने-अपने तरीके से अपना परिचय दे रहीं थी, पर शिल्‍पा ने एक अलग ही अंदाज में स्वपरिचय दिया। साथ ही उसने हिन्दी स्‍वागत-गीत को संस्‍कृत भाषा में अनुवाद करके सबके समक्ष सुनाते हुए सबका स्वागत किया, जो स्‍कूल में पहले सीखा था।

उसके बाद रोज़ाना नियमित क्‍लासेस शुरू हो गईं और सभी लड़कियों को अपनी-अपनी साथीदारों के साथ निर्वाह करना था। सबके शहर, प्रान्‍त, भाषा व स्‍वभाव अलग-अलग होने के बावज़ूद साथ में समायोजन के साथ रहना आवश्‍यक हो जाता है। एक तो माता-पिता के साथ रहने की आदत होने के कारण शुरू में थोड़ा अटपटा लगता है और फिर नवीन जगह, नए लोग व सब साथीदारों के स्‍वभाव को परखने में थोड़ा समय तो लगता ही है न? खैर एक सप्‍ताह तो बीत गया यूँ ही।

शिल्‍पा को पापा-मम्‍मी की याद आ जाती बीच में तो रोना आ जाता, पर हॉस्‍टल के नियम के अनुसार शाम को ही एक बार फ़ोन पर बात करने की इजाज़त थी। एक तो उसको वृंदा के साथ रहना जम नहीं रहा था, सबकी आदतें व स्‍वभाव में कुछ फर्क होना तो लाज़मी है पर उसके लक्षण कुछ ठीक नहीं थे।

वृंदा का नियमित क्‍लास में उपस्थित न रहना, वार्डन से झूठ बोलकर जाना और शाम को भी समय पर हॉस्‍टल वापस न आना शिल्‍पा के अध्‍ययन में व्‍यवधान डाल रहा था। फिर उसने वार्डन से बोला कि कोई साथीदार बदलना चाहती हो तो मुझे बताना।

लेकिन इन सबके चलते शिल्‍पा कॉलेज में नियमित प्रेजेंटेशन एवं प्रोजेक्‍ट कार्य समय पर जमा कर रही थी। जिससे बेहद प्रभावित हुए डीन महोदय ने शिल्‍पा को एक दिन क्‍लास के बीच में बुलाया और कहा तुमने बहुत अच्‍छी शुरूआत की है बेटी! देखना भविष्‍य में इसका तुम्‍हें सुखद प्रतिफल मिलेगा। मुझे परिचय के समय गाये संस्‍कृत गीत ने भी मन-मुग्‍ध कर दिया था साथ ही उन्‍होंने एक सरप्राइज देते हुए कहा शिल्‍पा! मैं तुम्‍हारा प्रवेश सीधे एम.टेक. इंटीग्रेटेड़ कोर्स के लिए करता हूँ, जो पाँच वर्ष में समाप्‍त हो जाएगा और सीधे एम.टेक. की डिग्री मिल जाएगी। यह सुनते ही शिल्‍पा की खुशी का ठिकाना ही नहीं था, वह तुरंत ही डीन से इजाज़त लेकर यह खुश-खबर सुनाने गई अपने मम्‍मी-पापा को…सुनते ही पापा ने कहा मैं न कहता था बेटी जो होता है वह हमेशा हमारे अच्‍छे के लिए ही होता है।

इसके पश्‍चात शिल्‍पा की इस नवीन प्रवेश प्रक्रिया के संपन्‍न होने के साथ ही हॉस्‍टल की साथीदार हर्षा भी मनमाफ़िक मिल गई, जो उसी के जैसी मिलनसार स्‍वभाव की थी। अब दोनों एक ही कैडर की होने के कारण खूब जोड़ी जमी, साथ कॉलेज जाने से लेकर हर जगह साथ ही जाना होता था।

इधर संगीता की हालत भी पहले से बेहतर हो चली थी, पर लाख कोशिशों के बावज़ूद भी वह अभी भी ड्यूटी जाने में असमर्थ थी। रूधिर की भी उच्‍च-स्‍तरीय पढ़ाई थी, सो वह भी अनिवार्य थी साथ ही सासुमाँ की दवाइयाँ भी चलती थी तो इन सबके साथ रवि को घर खर्च वहन करना बड़ा ही मुश्किल था, पर इस विषम परिस्थिति में भी संगीता स्‍वयं के सम्बल से सबको संभाले थी और जो पहले बचत कर रखी थी, वह इस मुसीबत की घड़ी में काम आई।

शिल्‍पा ने किसी तरह अपने अध्‍ययन के दौरान एक साल हॉस्‍टल में व्‍यतीत करने के उपरांत हर्षा व अन्‍य दो साथीदार के साथ ही किराये पर मकान शेयरिंग में लेने हेतु मम्‍मी-पापा को फ़ोन पर ही बताया, जो हॉस्‍टल से सस्‍ता पड़ रहा था। अब बीच में कभी संगीता को बेटी की देखभाल के लिए भी जाना अवश्‍यक हो गया था, नई जगह पर नए लोगों के साथ बेटी को पढ़ाना इतना भी आसान न था, सो अब वह दोनों जगह ध्‍यान दे रही थी।

अब धीरे-धीरे बढ़ती आवश्‍यकताओं के अनुसार शिल्‍पा को गाड़ी की भी ज़रूरत थी तो सेकेंडहेंड टूव्‍हीलर शिल्‍पा और हर्षा ने मिलकर खरीदा ताकि अध्‍ययन से सम्बंधित भी यदि कोई कार्य हो तो वह भी समय बचाने के हिसाब से आसानी से संपन्‍न किया जा सके।

इन सब खर्चों के पश्‍चात भी रवि अपनी सेवाएँ बखूबी निभा रहा था क्‍योंकि दोनों ही बच्‍चों को उच्‍च शिक्षा की सुविधा सुलभ कराना, यह एक ही तो मकसद था।

शिल्‍पा को भी आखिर सभी कठिनाईयों को पार करते हुए नए शहर में अपने दम पर हल निकालना आ ही गया था और वह अब हर कार्य पूर्ण आत्‍मनिर्भरता के साथ करने में सक्षम थी और देखते ही देखते उसके चार वर्ष वहाँ बीत भी गए। एम.टेक. का अंतिम वर्ष बचा था और वह भी बहुत ही महत्‍वपूर्ण था, इंटर्नशीप जो पूर्ण करनी थी ल्‍यूपीन फर्म से।

शिल्‍पा को अब अपनी सुविधानुसार जहाँ से जाने को नजदीक था, वहाँ किराये पर मकान लेना ज़रूरी हो गया, जिसके लिये मम्‍मी-पापा को आना पड़ा सारी सुविधाएँ मुहैय्या कराने के लिए।

अब तो रूधिर भी 12वीं की परीक्षा अच्‍छे नंबरों से उत्‍तीर्ण करने के उपरांत रेपुटेड़ कॉलेज में इंजीनियरिंग के प्रवेश के लिये ऑनलाईन परीक्षा देते हुए सदैव प्रयासरत था और ईश्‍वर की असीम कृपा से उसे भी पुणे में ही भारती विद्यापीठ कॉलेज में काउन्सिलिंग के दौरान केमिकल इंजिनियरिंग में ही प्रवेश आसानी से मिल गया। इस कॉलेज के निर्धारित नियमों के अनुरूप विद्यार्थियों को हॉस्‍टल में रहकर अध्‍ययन करना अनिवार्य था सो रूधिर ने भी किसी तरह 4-6 माह अपने साथीदारों के साथ जो उसके स्‍कूल के ही दो साथी थे किसी तरह समायोजन कर व्‍यतीत किये। उसे भी घर में साफ-सफाई के साथ रहने की आदत होने के कारण हॉस्‍टल लाईफ में अध्‍ययन करना नहीं सुहा रहा था।

फिर वह रोज़ाना फ़ोन पर मम्‍मी-पापा को कुछ न कुछ समस्‍याओं को बताता और अभिभावकों को भी सकारात्‍मक रहकर उसका निदान करना पड़ता। शिल्‍पा अब पूर्ण रूप से आत्‍मनिर्भर हो चुकी थी और वह सोच-विचारकर सुदृढ़ता के साथ निर्णय लेने में माहिर थी।

एक दिन अवकाश के दिन उसने माता-पिता से फ़ोन पर कहा कि रूधिर उन साथीदारों के साथ उचित रूप से नहीं रह पा रहा है। और इस तरह गंदगी में रहकर तो उसका स्‍वास्‍थ्‍य भी खराब होने का डर रहेगा। फिर वह मन लगाकर अध्‍ययन भी नहीं कर पाएगा, तो ऐसा करते हैं कि रूधिर और मैं सुविधानुसार उपयोगी किराये का मकान लेकर साथ ही में रह लेते हैं…मम्‍मी-पापा। इससे बाकी खर्चों की बचत भी हो जाएगी, रूधिर पढ़ भी लेगा और मुझे भी सहायता ही होगी न?

संगीता जो अब नौकरी से त्‍यागपत्र दे चुकी थी, इस अवस्था में विचारमग्न… इतने वर्षों की सेवा का मेवा तो मिला मुझे, रवि से कहते हुए… देखा आपने अपनी बेटी कितनी समझदार हो गई है जी, अब तो भाई-बहनों को साथ में रहने का शुभ-अवसर मिला है।

आरती अयाचित

भोपाल

Language: Hindi
Tag: लघु कथा
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