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31 Oct 2022 · 11 min read

“शिवाजी गुरु समर्थ रामदास स्वामी”✨

जिस समय देव दुर्लभ परम पवित्र भारत-भूमि में विदेशी शासको की धार्मिक कट्टरता अपनी पराकाष्टा पर थी, कुराज्य का बोल-बाला था, भारतीय संस्कृति का गौरवमय भविष्य अन्धकार के सिकंजो में तड़प रहा था, उस समय महाराष्ट्र में भागवत दूत के रूप में, ईश्वरीय सन्देश का प्रचार करने के लिये, धरती पर रामराज्य की भूमिका प्रस्तुत करने के लिये समर्थ रामदास का प्राकट्य हुआ।

उन्होंने अपने स्वराज्य के संस्थापक छत्रपति शिवाजी महाराज से तथा भारतीय जनता से कहा कि जब धर्म का अंत हो जाय तब जीने की अपेक्षा मर जाना अच्छा है। धर्म के समाप्त होने पर जीवित रहने का कोई अर्थ ही नहीं है। उन्होंने शिवाजी से कहा, ‘मराठो को एकत्र कीजिये, धर्म को फिर जीवित कीजिये, हमारे पूर्वज, पितर स्वर्ग से हमारे ऊपर हँस रहे है।’ समर्थ रामदास ने समस्त भूमि को उस समय धर्म-दान किया, धर्म राज्य की स्थापना का शुभ सन्देश दिया।

संत समर्थ रामदास के पूर्वज बड़े भगवतनिष्ठ और धर्मपरायण थे। उनका कुल परम भागवत था। हैदराबाद के ओरंगाबाद जनपद के आवन्द नामक मण्डल के जाम्ब गाँव में उनके मूल पुरुष कृष्णाजी पन्त आकर बस गये थे। समर्थ रामदास के पिता सूर्याजी पन्त भगवान् सूर्य के भक्त थे। उनकी माता रेणुबाई भी सतीसाध्वी और धर्म में अमिट रूचि रखने वाली थी। सूर्याजी पन्त ने छत्तीस साल तक भगवान सूर्य की उपासना की थी, उनके वरदान से उन्हें दो पुत्र हुए। पहले पुत्र का नाम गंगाधर-रामी रामदास था और दुसरे पुत्र ने विक्रम संवत 1665 में चैत रामनवमी को ठीक दोपहर के समय जन्म लिया, उनका नाम नारायण रखा गया, ये ही बाद में रामदास के नाम से प्रसिद्द हुए।
एक बार उनके माता-पिता उन्हें संत एकनाथ का दर्शन कराने के लिये पैठन ले गये। एकनाथ ने देखते ही कहा कि ये हनुमान के अंश से प्रकट हुए है, बहुत बड़े महात्मा होंगे।
नारायण (रामदास) का पालन-पोषण धार्मिक वातावरण में हुआ। वे बचपन से बड़े चंचल स्वाभाव के थे। खेल-कूद में ही इनका अधिकांश समय बीतता था। नदी के तट पर घूमना, पहाड़ के शिलाखंडो से चड़ना-उतरना, वृक्ष पर झूला झूलना ही इनका काम था। पांच साल की अवस्था में उनका उपनयन संस्कार हो गया, पिता की मृत्यु हो गई। शिक्षा-दीक्षा पर रेणुबाई ने बड़ा ध्यान रखा। उनकी कृपा से नारायण (रामदास) में शील, संयम और सदाचार आदि बढ़ने लगे। सूर्यदेव को वे नित्य दो हजार नमस्कार करते थे। हनुमान जी के प्रति उनके मन में सहज अनुराग था। उनका निश्चय था की हनुमान जी ही मेरे गुरु हो। वे अपने गाँव के हनुमान-मंदिर में जाकर ध्यान करने लगे, उनका दृढ़ व्रत था कि जब तक हनुमानजी के दर्शन नहीं होंगे, मै अन्न-जल ग्रहण नही करूँगा। हनुमान जी ने उनकी निष्ठा से प्रसन्न होकर दर्शन दिये, स्वयं प्रभु श्रीराम ने भी दर्शन दिये और वरदान दिया कि धर्म का प्रचार करो, लोक-कल्याण करो। प्रभु राम ने उनका नाम नारायण से रामदास रखा।

जब रामदास की अवस्था बारह वर्ष की हुई, माँ ने उनका विवाह करने का निश्चय किया। विवाह की बात सुनते ही वे उदास हो जाते थे। एक दिन तो विवाह की चर्चा छिड़ते ही घर से भाग निकले और दो-तीन दिन तक कही छिपे रहे। माता के समझाने पर कहा कि बड़े भाई ने तो विवाह कर ही लिया है, वंश चलते रहेगा, अब मेरे लिये विवाह की आवश्यकता ही नही रह गई है। बहुत कहने सुनने पर वे प्रस्तुत हो गये। माँ ने कहा कि जब तक अन्तरपट का संस्कार न समाप्त हो जाय तब तक विवाह से इंकार मत करना। रामदास ने बात मान ली। उनका विवाह आसन नामक गाँव में निश्चित हो गया। वे सजकर मण्डप में बैठे थे। ब्राह्मणों ने वर-वधु के बीच अन्तरपटवाला विधान संपन्न कराना चाहा। उसके समाप्त होते ही पण्डितो ने कहा ‘शिवमंगल सावधान।’ रामदास के अन्तःचक्षु खुल गये। उन्होंने सोचा कि मै तो सावधान हूँ ही पर यदि ब्राह्मण सावधान होने की चेतावनी देते है तो इसका कोई न कोई विशेष अर्थ अवश्य है। उन्होंने ब्राह्मणों से रहस्य पूछा तो वे बोल उठे कि अब तुम गृहस्थी की बेड़ी में जकड़ गये। इसलिये सावधान हो जाओ। रामदास सावधान हो गये। वे उसी समय विवाह मण्डप से भाग गए। गोदावरी के तट पर पहुँच कर कहा कि माँ, मुझे अपनी गोद में लेकर उस पार उतार दीजिये, आप पुण्यसलिला है, पाप-ताप-सहारिका है, असहाय की रक्षा कीजिये। वे गोदावरी की धारा में कूद पड़े, तैरकर उस पार राघवेन्द्र और माँ सीता की तपोभूमि पंचवटी में पहुंचे। पंचवटी में उन्हें साक्षात् दर्शन हुआ, उन्होंने करुणापूर्ण मार्मिक वाणी में भगवान् का स्तवन् किया। इस घटना के बाद उन्होंने तपस्या का जीवन आरंभ किया। गोदावरी और नन्दिनी के संगम वाले तट पर टाकली नामक गाँव की एक गुफा में निवास कर तप करने लगे। वे रात के पिछले पहर से ही उठ कर श्रीराम का चिंतन करते थे। दोपहर तक नदी में स्थिर होकर ‘श्रीराम जय राम जय जय राम’ मन्त्र का अनुष्ठान करते थे। अड़ोस-पड़ोस से मधुकरी मांग कर भगवान को समर्पित करके प्रसाद ग्रहण करते थे। तप से उनका शरीर तेजोमय हो उठा, मुखमण्डल पर दिव्य प्रकाश छा गया। उन्होंने टाकली में तीन साल तक कठोर तप किया। एक दिन वे संगम पर अनुष्ठान कर रहे थे। एक युवती ने उनको प्रणाम किया। समर्थ रामदास ने ‘अष्टपुत्र सौभाग्यवती भव’ आशीर्वाद दिया। स्त्री आश्चर्यचकित हो गई। उसने कहा कि महाराज मै तो विधवा हूँ, मेरे पति की मृत्यु हो गई है। मै सती होने जा रही हूँ। कुलपरम्परा के अनुसार चिता में चढ़ने से पहले आपसे आशीर्वाद लेने आई थी। संत समर्थ ने स्त्री के पति के शव पर गोदावरी का पवित्र जल छिड़का, राम नाम का स्मरण किया, वह व्यक्ति जीवित हो उठा। उसने उनकी चरणधूलि मस्तक पर चढ़ा कर कहा कि मै आपके दर्शन से धन्य हो गया। आपने मुझे मृत्यु के मुख से बाहर निकाल लिया। मेरा नाम गिरिधर पन्त है, यह मेरी पत्नी अन्नपूर्णा बाई है। समर्थ ने कहा कि पहले मैंने आठ संतान होने की बात कही थी, भगवान की कृपा से दस संतान की प्राप्ति होगी। गिरिधर पन्त ने अपने पहले पुत्र उद्धव गोस्वामी को समर्थ के चरणों में समर्पित कर दिया। वे ही उनके प्रधान शिष्य हुए। संत समर्थ ने बारह साल तक टाकली में तप किया, उसके बाद भगवान् श्रीराम के आदेश से वे तीर्थयात्रा और भागवत धर्म के प्रचार के लिये निकल पड़े। उन्होंने काशी, अयोध्या, गोकुल, वृन्दावन, मथुरा, द्वारका, श्रीनगर, बदरीनारायण, केदारेश्वर, उत्तरमानस, जगन्नाथपुरी, रामेश्वर आदि की यात्रा की। संतो का समागम किया। गोकर्ण, महाबलेश्वर, शेषाचल, शैलमल्लिकार्जुन, पञ्चमहालिंग, किष्किंधा, पम्पासरोवर, परशुराम क्षेत्र तथा पण्ढ़रपुर होते हुए वे पंचवटी पहुँच गये। इस यात्रा काल में अनेक मठ स्थापित किये, राम और हनुमान के मंदिरों का निर्माण कराया। इस प्रकार बारह साल की तीर्थयात्रा में उन्होंने देश काल की परिस्थिति का अनुभव कर आध्यात्मिक और सांस्कृतिक अभ्युत्थान का महामंत्र जगाया। उन्होंने धर्म का सारतत्व समझा कर देश को राघवेन्द्र के राज्यादर्श का मर्म बताया, धर्माचरण का सन्देश दिया।

उन्होंने गोदावरी की परिक्रमा आरम्भ की। एक दिन एकनाथ महाराज की समाधी का दर्शन करने पैठन गये। लोगो ने उनको पहचान लिया, कहा कि आप की माता की आंखों की रोशनी चली गई है। वे आपको देखने के लिये रोती-रोती अंधी हो गई है। समर्थ माता के दर्शन के लिये चल पड़े। जाम्व में अपने द्वार पर पहुँचते ही उन्होंने ‘जय जय रघुवीर समर्थ’ की आवाज लगाई। भावज भिक्षा देने आयी तो संत समर्थ ने कहा कि यह साधू केवल भिक्षा लेकर ही लौटने वाला नहीं है। माता ने उनकी आवाज पहचान ली। वे ‘नारायण नारायण’ पुकारती बहार आ गई। माता की चरणधूलि लेने के बाद समर्थ ने उनके नेत्रों पर हाथ फेरा और आंखों की रोशनी लौट आई। माँ ने पूछा कि तुमने किस जादूगर को वश में किया है। समर्थ ने कहा कि माँ, मैंने अयोध्या और मथुरा में वृन्दावन में लीला करने वाले को वश में किया है। घर में आनंद छा गया। बड़े भाई ने उनको देखते ही गले लगा लिया। माता के आग्रह से वे कुछ दिन घर पर ठहर गए। चलते समय उन्होंने माँ को कपिल गीता सुनाई। जो कपिल ने देवहूति को सुनाई थी। इस प्रकार आत्मबोध देकर वे गोदावरी की परिक्रमा में प्रवृत्त हुए। उसके बाद पंचवटी आकर रामचन्द्र का दर्शन किया। उन्होंने टाकली की यात्रा की, टाकली में उनसे उद्धव गोस्वामी मिले। इस प्रकार बारह साल तपस्या में और बारह साल यात्रा में लगा कर वे कृष्णा नदी के तट पर आ गये। कृष्णा नदी के उद्गममहाबलेश्वर क्षेत्र में रह कर उन्होंने धर्म-प्रचार किया। चार मास के बाद वे कृष्णा और वेणा नदी के संगम पर माहुली क्षेत्र में आकर रहने लगे। बड़े-बड़े साधू संत उनका सत्संग करने लगे। उनके शिष्यों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी। तुकाराम जी महाराज का उनसे सत्संग हुआ। कुछ दिनों के बाद वे शाहपुर के निकट एक पहाड़ी गुफा में एकांत-सेवन करने लगे। बड़े-बड़े सामन्तो और राजाओ ने अपने आप को उनके चरणों में समर्पित कर दिया था।

संत समर्थ अधिकांश रूप में चाफल में रहते थे। कभी-कभी देश के विभिन्न भागो में परिभ्रमण भी कर लिया करते थे। संत समर्थ और छत्रपति शिवाजी महाराज का मिलना तत्कालीन भारतीय इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है। उस समय महाराष्ट्र में संत तुकाराम की प्रसिद्धि बहुत बढ़ रही थी। शिवाजी महाराज ने तुकाराम जी को अपना गुरु बनाना चाहा था पर उन्होंने बड़ी विनम्रता से समर्थ रामदास के लिये सम्मति दी। शिवाजी संत समर्थ के दर्शन के लिये बड़े उत्सुक थे। संत समर्थ का दर्शन अत्यंत दुर्लभ था। वे एक स्थान पर कभी स्थायी रूप से नही रहते थे। इधर-उधर घूमते रहते थे। शिवाजी महाराज ने उनको एक पत्र लिख कर पथ-प्रदर्शन करने का आग्रह किया था। सम्वत् 1706 वि. के लगभग चाफल के समीप शिंगणवाड़ी में एक गूलर के पेड़ के नीचे बैठे हुए संत समर्थ का शिवाजी को दर्शन हुआ। वे उस समय उन्ही का पत्र पढ़ रहे थे। रामदास ने शिवाजी की विशेष श्रद्धा देखकर उनको शिष्य रूप में स्वीकार कर लिया और धर्मपूर्वक राज्य करने का सदुपदेश दिया। इस घटना के बाद समर्थ रामदास ने कुछ दिनों तक पार्ली में निवास किया, पार्ली का नाम सज्जनगढ़ हो गया। सम्वत् 1712 वि. के लगभग महाराज शिवाजी सतारा के किले में निवास कर रहे थे। एक दिन कुछ शिष्यों के साथ भिक्षा माँगते हुए समर्थ रामदास सतारा में पहुँच गये। किले के द्वार पर पहुँचते ही उन्होंने ‘जय जय समर्थ रघुवीर’ का जयघोष किया। महाराज शिवाजी ने एक पत्र लिख कर उनकी झोली में डाल दिया। पत्र में लिखा था कि आज से मेरा समस्त राज्य गुरुदेव का है। संत समर्थ ने शिवाजी की परीक्षा ली कि आप क्या करेंगे ? उन्होंने कहा कि मै आपके पीछे-पीछे घूमूँगा। शिवाजी ने उनके साथ कन्धे पर झोली रख कर भिक्षा माँगी। समर्थ ने समझाया कि आप का धर्म है राजकार्य करना। शिवाजी ने सिंहासन पर गुरुदेव की चरण पादुका रखकर राज्य करना आरम्भ किया और धर्मराज्य की स्थापना हुई। उन्होंने गुरु के प्रति आदर दिखाने के लिये ध्वजा का रंग भगवा कर दिया। शिवाजी ने उनकी छत्रछाया में वैष्णव धर्म स्वीकार कर स्वराज्यव्रत का पालन किया। संत समर्थ ने समझाया कि देव मंदिर विदेशी शासन द्वारा भ्रष्ट हो रहे है, सज्जन उत्पीड़ित किये जा रहे है, धर्म और संस्कृति खतरे में है, हे वीर! भारत भूमि का संरक्षण कीजिये। आप धर्म को बचाइये, भारतीय संस्कृति आप ही की ओर देख रही है, उसकी रक्षा कीजिये। ईश्वर के भक्तो की सदा विजय होती है। समर्थ रामदास के संकेत पर शिवाजी सर्वस्व की बाजी लगा देने में आत्मगौरव समझते थे। संत समर्थ ने जनता को आत्मबोध प्रदान किया कि स्वराज्य का वास्तविक रूप क्या है और उसके अनुसार राष्ट्र का जीवन कैसा होना चाहिए। वे अच्छी तरह समझते थे कि ‘स्व’ पर राज्य करने के लिए सात्विकता और धर्माचरण की बड़ी आवश्यकता है। उन्होंने अच्छी तरह समझ लिया कि भारतीय स्वराज्य और धर्म का संरक्षण संत ही कर सकते है। संत समर्थ की कृपा से लोगो की आत्म चेतना जागृत हो उठी। समर्थ रामदास ने लगभग सात सौ मठो की स्थापना कर देश को आत्म ज्योति, सांस्कृतिक गौरव और धर्मराज्य से संपन्न किया। समर्थ रामदास ने जनता को संतमत का सत्स्वरूप समझाया, राम की भक्ति दी। उन्होंने कहा कि जिसने मद, मत्सर और स्वार्थ का त्याग कर दिया है, जिसे सांसारिक बंधन नही है, जिसकी वाणी नम्र और मधुर है वही राम का सच्चा सेवक है, पृथ्वी पर उसका जीवन धन्य है। उन्होंने श्रीरामचन्द्र की भक्ति को ही सर्वश्रेष्ठ और परम श्रेयस्कर स्वीकार किया, आत्मस्वरूपस्थ रहने की ही सिख दी। ‘मनाचेश्लोक’ में उनकी सरल उक्ति है।
घनश्याम हा राम लावण्य रुपी।
महाधीर गम्भीर पूर्ण प्रतापी।।
करी संकटी सेवकाचा कुडावा।
प्रभाते मनो राम चिंतीत जावा।।
श्रीराम नीले बादल के समान सुन्दर है, वे बड़े गंभीर, धीर और प्रतापी है, संकट काल में भक्त की रक्षा करते है, हे मन! प्रभात काल में उनका ही स्मरण करो। राम ही को उन्होंने परम शक्तिमान स्वीकार किया, संतो का उपास्य बताया। उन्होंने कहा कि जिस मनुष्य के मुख से राम नाम मन्त्र का उच्चारण नहीं होता वह संसार में बहुत बड़ी हानि उठाता है। जिसका जीवन व्यर्थ है उसी को राम नाम में रस नही मिलता है, भगवन्नाम ही परमश्रेष्ट है, यह वेद और शास्त्र तथा व्यासजी का मत है। हमें इसी का आश्रय लेना चाहिए। यह सर्वथा सत्य है। संत समर्थ ने वर्णाश्रम धर्म में बड़ी निष्ठा प्रकट की। पर ऐसा करके भी उन्होंने प्राणीमात्र को अपने राम का स्वरुप मान कर ही नहीं, समझ कर भी उपास्य बताया, आदरास्पद कहा। आत्मकल्याण और लोकहित को सत्य की आत्मा की ज्योति से समृद्ध कर समर्थ रामदास ने अपने संतत्व की रक्षा की। उन्होंने भगवान् राम की भक्ति के बल पर सत्य-धर्म का संरक्षण किया, संत का कर्तव्य नीवाहा। उन्होंने भगवत भक्ति की व्याख्या में कहा कि भगवच्चरण की शरणागति ही श्रेय है, मृत्यु पर विजय कर अमरता का वरण करना ही आत्मचिंतन का परम रहस्य है। आत्मचिंतन से ही भगवान् प्रसन्न होते है, समाज का कल्याण होता है, प्राणियों को सुख मिलता है।

संत समर्थ के सहस्त्रो शिष्य थे। उनमे कल्याण स्वामी और उद्धव गोस्वामी प्रधान थे कल्याण स्वामी प्रायः उन्ही के साथ रहा करते थे। वे समर्थ स्वामी रामदास के बनाये लेख, भजन तथा उपदेश लिपिबद्ध कर लिया करते थे दत्त, अकावाई और वेनुबाई की गणना विशेष शिष्यों में ही होती थी।
संत रामदास की ईश्वर में पूर्ण आस्था थी, उनकी शक्ति के सामने वे जगत का मस्तक नत देखना चाहते थे। एक दिन सज्जन गढ़ का किला बनवाते समय शिवाजी महाराज को अपनी शक्ति पर अभिमान हो गया। उन्होंने सोचा की मेरे द्वारा नित्य सहस्त्रो व्यक्तियों का भरण-पोषण होता है। इतने में दैवयोग से रामदास जी महाराज आ पहुँचे। उन्होंने अपने शिष्य शिवाजी के मन की अवस्था जान ली। उन्होंने एक मजदुर से पत्थर का एक टुकड़ा तोड़ने का संकेत किया, उसके भीतर एक छोटा-सा मेढ़क था और थोड़ा था पानी था। संत रामदास ने शिवाजी से कहा कि आप बड़े शक्तिशाली है, आपके सिवा जगत के जीवो का पालन-पोषण दूसरा कर ही कौन सकता है?
शिवाजी को अपनी भूल समझ में आ गयी। वे गुरुदेव के चरणों पर गिर पड़े और उनसे क्षमा माँगी।
इसी प्रकार ‘मनाचे श्लोक’ की रचना के सम्बन्ध की एक घटना का उल्लेख सन्त समर्थ के जीवन चरित्र का आवश्यक अंग सा प्रतीत होता है। रामदास जी महाराज चाफल निवास काल में प्रत्येक वर्ष रामनवमी का उत्सव धूम-धाम से करते थे। शिष्य भिक्षा मांग कर उत्सव किया करते थे। शिवाजी महाराज ने बाद में अपनी ओर से उत्सव के लिए सामग्री भेजना आरम्भ कर दिया। एक साल उनकी ओर से किसी कारण सामग्री समय पर न आ सकी। उत्सव में केवल पन्द्रह दिन रह गये थे। शिष्यों ने आग्रह किया कि शिवाजी के पास पत्र लिख कर सामग्री मंगा ली जाय परन्तु रामदास ने प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया और कहा कि भगवान सर्वसमर्थ है, वे सामग्री भेज देंगे। संत रामदास ने रात को कल्याण स्वामी को अपने पास बैठाकर दो सौ पाँच श्लोक लिखा दिये और तप करने चले गये। दुसरे दिन कल्याण स्वामी की प्रेरणा से महाराज के शिष्यों ने घर-घर घूम कर उन श्लोको का गान किया। भिक्षा में अमित सामग्री की प्राप्ति हुई और उत्सव विधिपूर्वक संपन्न हुआ।

सन्वत् 1737 वि. में उनके प्रिय शिष्य शिवाजी महाराज का स्वर्गवास हो गया। उनकी मृत्यु से समर्थ रामदास को बड़ा धक्का लगा। उन्होंने अन्न का त्याग कर दिया, केवल दूध पर रहने लगे। लोगो को दर्शन देना बंद कर दिया। कभी मढ़ी से बहार नही निकलते थे। महाराष्ट्र पर औरंगजेब के उत्पात आरम्भ हो गये, शम्भाजी शक्तिहीन थे। ऐसी परिस्थिति में समर्थ चिंता में विकल हो गये। सन्वत् 1739 वि. की माघ कृष्ण नवमी को उन्होंने महाप्रयाण किया। उनके मुख से हर-हर उच्चारण होने के बाद रामनाम का जयघोष हुआ, उसके बाद उनके मुख से एक ज्योति निकल कर राम के विग्रह में समा गयी।
जय श्रीराम🙏🏻🌷

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