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29 Apr 2020 · 1 min read

((( वज़ूद )))

ये कैसी ज़िन्दगी जी रहे है हम ,
इसमे ज़ीने जैसा कुछ भी नही ।

सब अपना वजूद खोजते रहते है मुझमे ,
जैसे मेरा अपना कोई वज़ूद ही नहीं ।

जो किया सब की खुशी के लिए किया ,
मेरी अपनी भी खुशी है , ये कभी सोचा भी नही ।

जो चुप रह के सह लू हर अत्याचार तो भली ,
जो खोलू ज़ुबा तो हमसे बुरा कोई भी नहीं ।

दुसरो की ख्वाहिशो के बोझ तले दबे है इतने ,
अपनी कभी कोई ख्वाईश हुई ही नहीं ।

सब ने ऐसा कुचला है मेरे अस्तित्व को ,
जैसे मैं पत्थर हूँ , कोई इंसान ही नहीं ।

एक एक सांस आज बेबस और गिरवी लगती है ,
क्या करूँ इस धड़कन का ,जब मेरी रूह ज़िंदा ही नही ।

Language: Hindi
Tag: कविता
2 Likes · 3 Comments · 267 Views
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