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8 Jun 2023 · 1 min read

विरह

बीति रहा मधुमास सखी, अजहूं बलमा घर आये नहीं,
हिय मोर विरक्त बिना पिय के, उथ बैरी फागुन गाये रहीं !
कर्कश कोकिल के सुर हैं, नव कोंपल भी कुम्हलाये रहीं,
दृगनीर बियोग में सूखि गयो, मोहे गीत बसंत के भाये नहीं ।१।

कासे कहूं मैं व्यथा मन की, बस भोर ते बाट निहार रही,
निज ही निज आतुर मैं पगली, सुख देत मृदंग, मल्हार नहीं।
ठाड़ि सुयोग कि आस लिये, ज्यों चकोर वो चन्द्र पुकार रही,
दोउ नैनन ते नित नीर बहै, मोहे भात बसंत बहार नहीं ।२।

– नवीन जोशी ‘नवल’

(स्वरचित एवं मौलिक)

Language: Hindi
1 Like · 89 Views
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