राजयोग महागीता:: तृष्णा, स्वार्थ, वासनाएँ, दम्भ( पो८)
राजयोग महागीता:: घनाक्षरी: गुरनक्तानुभव ( अध्याय१)
तृष्णा, स्वार्थ- वासनाएँ, दम्भ , द्वेष, छल जैसे,
विषयों को विष की भाँति त्याग , सद्कार्य है ।
दैहिक , सांसारिक, कामनाओं , अहंकार का ,
ऐसी संकीर्णता का त्याग अपरिहार्य है ।
क्षमा, दया, सत्य– रस उदारता , संतोष का
अमृत की भाँति पान करना स्वीकार्य है ।
यही वीतरागता का , महाशांति प्राप्ति का भी
मोक्ष प्राप्ति का उपाय यही अनिवार्य है ।।अध्याय १ :३!!
-;——– जितेन्द्र कमल आनंद